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चुनौतियाँ भरी है बहुजन साहित्य की अवधारणा

 

समीक्षित पुस्तक: बहुजन साहित्य की प्रस्तावना
लेखक: प्रमोद रंजन, आययन कोस्का
प्रकाशक: अमेज़न भारत  (पुस्तक के लिए क्लिक करें)
पृष्ठ संख्या: 189
मूल्य: ₹100.00


माननीय आयवन कोस्का और प्रमोद रंजन द्वारा संपादित ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ नामक पुस्तक मिली . . . पढ़कर जाना कि दलित साहित्य के उद्भव के बाद भारतीय समाज के दलित और पिछड़े समाज में जिस साहित्यिक अभिरुचि का प्रादुर्भाव हुआ है . . . वो देर-सवेर होना ही था। क्योंकि कोई भी समाज ज़्यादा देर तक परम्पराओं का अनैतिक बोझ नहीं ढो सकता। मुझे यह मानने से कोई गुरेज़ नहीं है कि परम्पराओं के बोझ तले दबा बहुजन समाज कभी एकजुट नहीं हो पाया और आज भी एकजुट नहीं है . . . इसके विपरीत ब्राह्मण समाज भीतर के तमाम अंतर्विरोधों के चलते कभी भी विघटित नहीं हो पाया . . . ब्राह्मण की यही एक ऐसी विशेषता है जिसने बहुजन वर्ग को अपनी चालों में फँसाकर कभी एकजुट नहीं होने दिया। इसलिए बहुजन समाज में विभिन्न साहित्यिक धाराओं का उत्पन्न होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया ही कही जाएगी। ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ इस सत्य का एक उदाहरण है। 

दलित साहित्य के बाद मूलनिवासी साहित्य, अम्बेडकरवादी साहित्य, पेरियार-फूले साहित्य, आदिवासी साहित्य . . . और भी विभिन्न साहित्यिक धाराओं का शैने-शैने उदय हुआ है। बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी भी इन धाराओं से विरत नहीं है। संविधान की धारा 16 (4) के तहत पिछड़े वर्ग की समीक्षा मिलती है। दरअसल समाज की दमित जातियों का विभाजन भी यहाँ देखने को मिलता है। जिसके तहत अनुसूचित जातियों और जनजातियों के साथ-साथ अन्य पिछड़ी जातियों के समुच्‍चय को ‘पिछड़ी जातियाँ’ माना गया है। किन्तु अंतर सिर्फ़ इतना है कि समाज की प्राय: अपृश्य जातियों को संविधान के अंतर्गत अनुसूचित कर दिया गया और अन्य पिछड़ी जातियों को अनुसूचित नहीं किया गया। शायद इसके पीछे तर्क रहा होगा कि अन्य पिछड़ी जातियाँ अपृश्य जातियों के मुक़ाबले न केवल आर्थिक रूप से सबल हैं अपितु उन्हें सामाजिक सम्मान भी प्राप्त है। अनुसूचित जातियाँ आज भी हेय दृष्टि से देखी जाती हैं। इस सामाजिक स्थिति के चलते दलित-साहित्य और पिछड़ी जातियों के साहित्य में मूलभूत अंतर होना लाज़िम है। हाँ! इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि दलित-साहित्य की तरह बहुजन साहित्य भी दमित जातियों में एक नई चेतना को विकसित करने में मददगार ही सिद्ध नहीं होगा, अपितु ब्राह्मणवाद को चुनौती देने में एक अहम भूमिका का संचार करेगा। किन्तु यहाँ इस भावना पर एक प्रश्नचिन्ह भी लग सकता है कि बहुजन साहित्य में शायद ही वह धार और संघर्ष की भावना/जिजीविषा का संचार हो सके जैसा कि दलित-साहित्य अर्थात्‌ अम्बेडकरवादी साहित्य में सम्भव हो पाया है। 

कहना न होगा कि संदर्भित पुस्तक में संगृहीत लेखों को तीन खंडों में संयोजित करना ही मेरे मत का समर्थन करता है। शुरूआत में ही ओबीसी साहित्य विमर्श, आदिवासी साहित्य विमर्श तथा बहुजन साहित्य विमर्श की बात उठाना समाज में या फिर समाज की वैचारिकता में बँटवारे की ओर संकेत करता है। इसमें कोई शंका नहीं कि पुस्तक में समाहित लेख/सामग्री पूरी तरह से सारगर्भित और विचारोत्तेजक हैं। किसी विशेष लेखक का उल्लेख करना मुझे यहाँ तर्कसंगत इसलिए नहीं लगता क्योंकि सभी ने अपने मन-मस्तिष्क से विस्तृत अध्ययन और लेखन का परिचय दिया है। अपने-अपने अनुभवों और सोच को साझा किया है। 

एक बात मुझे बार-बार झकझोर रही है कि पिछड़ी (‘ओबीसी’) जातियों में तो पहले से ही काफ़ी साहित्यकार तथाकथित मूलधारा के साहित्य को समृद्ध करते रहे हैं। फिर ऐसा क्या हुआ कि आज “ओबीसी साहित्य विमर्श” का सवाल उठ खड़ा हुआ, क्या हमारे बुज़ुर्ग साहित्यकार समाज के प्रति अपनी भूमिका को निभाने में असमर्थ रहे हैं? एक बात और यह कि क्या अनुसूचित जातियों की तरह ‘ओबीसी’ समाज अपने आपको ब्राह्मणवादियों द्वारा जाति का मुद्दा, ईश्वर और धर्म की स्थापना से ऊपर उठ पाने का साहस कर पाएगा? क्या ‘ओबीसी’ समाज ईश्वर और धर्म में विश्वास रखने वाले ब्राह्मण जाति की तरह साहित्य के नाम पर एकजुट हो पाएगा? यह सवाल दलित साहित्यकारों के सामने भी मुँह बाए खड़ा है। माना कि दलित साहित्य दमन के विरुद्ध चेतना का साहित्य है। इसमें उन दलित जातियों की चेतना की अभिव्यक्त होती है, जिन्हें इतिहास के दौर में सर्वाधिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी है। परन्तु दलित-साहित्यकारों में वैचारिक एकता के इतर जातीय एकता देखने को कम ही मिलती है। दलित-साहित्यकार जातीय ख़ैमों में बँट गए हैं। वहाँ भी अलग-अलग जातियों के साहित्यकारों में वैचारिक मतभेद सामने आने लगा है। यह चुनौती ओबीसी साहित्य विमर्श, आदिवासी साहित्य विमर्श तथा बहुजन साहित्य विमर्श में घर नहीं बनाएगी, मुझे ऐसा नहीं लगता। ग़ौरतलब है कि ओबीसी वर्ग भे अनेक जातियों का समुच्च्य है। उल्लेखनीय है कि अन्य पिछड़े वर्ग में भी राजनेताओं ने फूट डालने का कम शुरू कर दिया है। अन्य पिछड़े वर्ग की 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों का दर्जा देने के उत्तर प्रदेश की सरकार के हालिया निर्णय को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। क्या ‘ओबीसी’ जातियाँ ऐसे निर्णय को पचा पाएँगी . . . क्या उन्हें ‘दलित’ जातियों में दर्जा दिए जाना रास आएगा? और यह भी क्या बहुजन साहित्यकार ऐसे निर्णयों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करने का साहस जुटा पाएगा? यदि हाँ। तो फिर बहुजन साहित्य के उज्ज्वल भविष्य की कामना की जा सकती है। 

‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ किताब का प्रत्येक लेख अपने आप में रेखांकित करने योग्य है। हर लेख आलोचना और समालोचना से सराबोर है। कुछ लेख यदि बहुजन साहित्य की आवश्यकता पर बल देते हैं तो कुछ लेख दलित साहित्यकारों और ओबीसी साहित्यकारों वैचारिक पृष्ठभूमि/भूमिका पर सवाल खड़ा करते हैं। वह इसलिए कि जब दलित साहित्यकार तथाकथित मूलधारा के साहित्य के समानांतर नई साहित्यिक धारा बनाने में अग्रसर थे, तब पिछड़े वर्ग के साहित्यकार या तो कुछ सकारात्मक सोच बनाने की सूरत में नहीं थे या फिर दलित साहित्य की मूल विचारधारा के पक्ष में द्विज साहित्यिक/सामाजिक मान्यता को नकारने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। उन्हें दलित साहित्यकारों के साथ जाना नापसन्द था . . . जबकि जाना चाहिए था। किन्तु इसे कोई घात नहीं कहा जा सकता . . . हमारे सामाजिक सरोकार ही कुछ इस प्रकार से छिन्न-भिन्न हैं। एक और चिंता का विषय है कि दलित साहित्यकारों ने समाज के जिन महापुरुषों की विचारधारा को लेकर अम्बेडकरवादी साहित्य को विकसित किया है, उन्हें किसी और को कैसे सौंप देंगे। इस प्रकार का दुराव इन तीनों ही धाराओं में होना स्वाभाविक है। इससे जूझने के लिए सभी को तैयार रहने की ख़ासी ज़रूरत है। बहुजन साहित्य की अवधारणा को आदिवासी और ओबीसी साहित्य किस हद तक स्वीकार कर पाएगा, यह भी एक विचारणीय विषय है, यूँ बहुजन साहित्य की अवधारणा एक विस्तृत और सभी वर्गों को साथ लेकर चलने का फलक रखता है। 

यदि बहुजन साहित्य ब्राह्मणवादी सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श तथा जीवन की समस्त गतिविधियों से उबर पाने का साहस जुटा पाता है तो निसंदेह यह एक बड़ा साहित्यिक आन्दोलन सिद्ध होगा। साहित्य के बलपर आर्थिक और सामाजिक समानता का मार्ग प्रशस्त होने की सम्भावना तलाशना अभी दूर की बात है। बहुजन साहित्य की अवधारणा के बूते पर यदि दलित/दमित/ओबीसी समाज को एक सूत्र में बन्धने का मार्ग-भर ही प्रशस्त हो जाता है तो यह एक बड़ी बात होगी।

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