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चौपाल पर कबीर


कबीर के जन्म दिन पर विशेष:

 

बचपन में हमने देखा था कि गाँव के बच्चे, जवान और बूढ़े लोग अच्छी-ख़ासी संख्या में रोज़ाना ही गाँव की चौपाल पर एकत्र हो जाया करते थे जिनमें बच्चों की संख्या ज़्यादा होती थी . . . बच्चे भी हर उम्र के। चौपाल पर एक बड़ा सा पीपल का छायादार पेड़ हुआ करता था। उसके नीचे कुछ चारपाइयाँ हर समय पड़ी रहती थीं। गाँव-भर के मेहमान इसी चौपाल पर आराम किया करते थे। चौपाल पर केवल एक कमरा हुआ करता था जिसमें बारिशों के दिनों में चारपाइयाँ आदि बिछा दी जाती थीं। साँझ होते ही गाँव के एक बुज़ुर्ग जिन्हें सब काका कहकर पुकारते थे, रोज़ाना इकतारे पर कबीर दास के पद और भजन आदि सुनाया करते थे। चौपाल पर हाज़िर सब जने बड़े ही ध्यान से काका का राग सुना करते थे। कहना ग़लत नहीं कि गाँव में बिना पढ़े-लिखों की तादाद ज़्यादा थी। कुछ की समझ में तो उनकी बात आ जाती थी, कुछ के नहीं। वे बस इकतारे की धुन का ही मज़ा लिया करते थे। मैं भी उनमें से एक था। आज भी काका इकतारे पर कुछ इस प्रकार गा रहे थे . . .  

“हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या? 
रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या? 
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से, 
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेक़रारी क्या? 
कबीरा इश्क़ का माता, दुई को दूर कर दिल से, 
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या?”

काका इसे बड़े ही मज़े लेकर गाने में लीन थे किन्तु अपनी समझ में जैसे कुछ नहीं आ रहा था। आख़िर मैंने काका से पूछ ही लिया, काका आप ये क्या गाते रहते हो? काका अनपढ़ कबीरपंथी थे। उन्होंने अपने अंदाज़ में सिर्फ़ इतना कहा कि भैया! ये कबीर दास की . . . बानी है। उनकी बानी में बड़े जतन की बातें होती हैं। भैया! . . . इससे ज्यादा और पता नाय मोकू। तभी काका की नज़र पास में बैठे कन्हैया पर पड़ी। काका अनायास ही कन्हैया से कह बैठे, “बेटा कन्हैया! तुम बताओ न सबको कबीर दास के बारे में। तुम्हें तो कबीर के बारे में सब कुछ पता होगा ना . . .।” कन्हैया लाल गाँव के मेहमान थे, सोलहवीं तक पढ़े-लिखे थे। शहर में एक बड़े सरकारी ओहदे पर नौकरी करते थे। वे काका को अनदेखा न कर सके और चौपाल पर हाज़िर सब जनों का अभिवादन करने के उपरांत अपनी बात इस तरह कहनी शुरू कर दी . . . 

बंधुओ! यूँ तो कबीर दास के दोहे पाँचवीं कक्षा से पहले ही पढ़ाए जाने लगे थे किन्तु उस समय कबीर दास के दोहे मेरे लिए जैसे केवल एक शब्द-शृंखला भर ही थे। मैं शायद आठवीं कक्षा मैं था, जब मैंने पहली बार कबीर दास के दोहों के अर्थ को कुछ-कुछ समझना शुरू किया और कबीर के दोहों की शब्दावली और शब्दों के प्रयोग से मैं निरंतर प्रभावित होता चला गया। उनका ये दोहा कि

‘गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पांय। 
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो मिलाय॥’ 

तो जैसे मेरे जीवन का नारा ही बन गया। जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ तो पाया कि शिक्षा का कोई ऐसा पड़ाव नहीं था कि जब इस दोहे का बार-बार ज़िक्र न हुआ हो। हाँ! आठवीं कक्षा में आने तक समाज की नई-पुरानी सोच से मेरा कुछ लेना-देना नहीं था। इससे पहले कि मैं आगे और कुछ कहूँ, कबीर दास का जीवन परिचय जानना ज़रूरी है। 

तो बन्धुओ! कबीरदास का जन्म काशी में सन्‌ 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ था। ‘नीमा’ और ‘नीरु’ कबीर के माता-पिता थे। ‘नीमा’ और ‘नीरु’ पेशे से जुलाहे थे, ऐसा कहा जाता है। कुछ लोगों का कहना है कि नीमा और नीरु ने केवल कबीर का पालन-पोषण ही किया था। कबीर दास संत रामानंद के शिष्य बने और शिक्षा प्राप्‍त की। कबीर का विवाह ‘लोई’ के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी। कबीर सधुक्कड़ी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी-खरी बात कहते थे। उन्होंने हिंदू-मुसलमान यानी समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरवाद का खुलकर विरोध किया। कहा जाता है कि कबीर ने हिंदू-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फ़क़ीरों दोनों की अच्छी बातों का अनुसरण किया था। कबीर की वाणी, उनके उपदेश, उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावन-अक्षरी, उलटबासी में देखे जा सकते हैं। बाद में कबीर काशी छोड़कर मगहर चले गये और वहीं सन्‌ 1518 में देह त्याग किया। मगहर में कबीर की समाधि है जिसे हिन्दू मुसलमान दोनों पूजते हैं। हिंदी साहित्य में कबीर का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है। मज़हब, समाज, दुनियादारी जैसे विषयों पर उनकी सोच और उसे पेश करने का अंदाज़ बहुत अनोखा था। 

दरअसल, कबीर से मेरा असली परिचय बड़ी कक्षा में इतिहास की कक्षा में हुआ। हमें भक्ति आन्दोलन के बारे में पढ़ाया गया। एक ऐसा आन्दोलन जिसने कट्टर धार्मिक सोच को एक करारा जवाब दिया था। कबीर कठिन धारणाओं को साधारण भाषा में कह जाने की कला में माहिर थे। उनकी सोच पर समय का कोई प्रतिबन्ध नहीं था, उनकी सोच आज भी उतनी ही मान्यता रखती थी जितनी उस युग में। 

साथियो! कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। उनकी कविता का एक-एक शब्द असत्य व अन्याय की पोल खोल धज्जियाँ उड़ाता चला गया। कबीर ने अंधविश्वासों पर बहुत प्रहार किया था। आइए! इस महान संत के कुछ अविस्मरणीय दोहो का आनंद लेते हैं। मेरा प्रयास है कि कबीर के दोहों के साथ-साथ उनके अर्थ का बखान भी किया जाय ताकि कबीर की बाणी को ठीक से समझा जा सके। तो कबीर कहते हैं:

“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, 
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।” 

इस दोहे में कबीर कहते हैं कि जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई भी बुरा नहीं मिला। लेकिन जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई और है ही नहीं। 

“पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, 
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।” 

कबीर कहते हैं कि बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए अर्थात्‌ मर गए किन्तु सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात्‌ प्यार का वास्तविक अर्थ पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा। 

अगला दोहा:

“साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, 
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।” 

यानी इस संसार में ऐसे सज्जनों की ज़रूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप (छाज) होता है जो अच्छे-अच्छे (सार्थक) को बचा लेता है और ख़राब-ख़राब (निरर्थक) को उड़ा देता है। 

मुसलमानों की अंधभक्ति पर कबीर कुछ इस प्रकार प्रहार करते हैं: 

“काँकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय। 
ता चढ़ मुल्‍ला बाँग दे, बहिरा हुआ खुदाए॥” 

इसका अर्थ तो अपने आप ही साफ़ है। इतना ही नहीं, हिन्दुओं की अंधभक्ति पर भी कबीर चुप नहीं रहते:

“पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़। 
ताते तो चाकी भली, पीस खाए संसार॥” 

कबीर कहते हैं कि यदि पत्थर की पूजा करने से हरि मिलते हों तो मैं पहाड़ ही पूजने को तैयार हूँ अर्थात्‌ पत्थर पूजने से कोई हरि नहीं मिलते। इससे तो घर की चक्की भली है जिससे अनाज पीस कर जो आटा बनता है उसे खाकर संसार भर ज़िन्दा तो रहता है। ऐसे थे कबीर जिनके दिल में साफ़ बात करने का ख़ास जज़्बा था। वास्तव में संत कबीरदास ‘हिंदी साहित्य—भक्ति काल’ के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है: 

“बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि। 
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि॥”

“अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। 
अति का भला न बरसन, अति की भली न धूप॥”

“काल्‍ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्‍ब। 
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब्‍ब॥” 

“निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय। 
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥” 

“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ग्‍यान। 
मोल करो तलवार के, पड़ा रहन दो म्‍यान॥” 

बच्चो! लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व-प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। कबीर साहेब ने दोहों के अलावा पद और साखियों आदि की भी रचना की थी जिनका गान आज भी गाँव-गाँव कबीरपंथी बड़े ही मन से करते हैं। इकतारा उनके इस गान और रंग भर देता है। उनके गान को सुनने गाँव भर के बालक-बच्चे और बड़े बड़ी संख्या में चौपाल पर जमा हो जाते हैं। उनका यह पद दुनियादारी की ख़ासी व्याख्या करता है:

“रहना नहीं देस बिराना है॥
यह संसार कागद की पुड़िया,
बूँद पड़े घुल जाना है॥
यह संसार काँटे की बाड़ी, 
उलझ-पुलझ मरि जाना है॥
यह संसार झाड़ और झाँखर, 
आग लगे बरि जाना है॥
कहत कबीर सुनो भाई साधो, 
सतगुरू नाम ठिकाना है।” 

आपको यह जानकर हैरत होगी कि कबीर ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में रचना की थी। उनके भजन, पद, साखियाँ आदि आज भी जनता की ज़ुबान पर राज करती हैं। कबीर भक्तिकाल के एक ऐसे कवि हैं जिनको जनकवि कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। यूँ आजकल चौपालों पर पहले जैसा जमावड़ा नहीं होता किन्तु उनका ये भजन यदा-कदा गली-कूचों में भिक्षा माँगने वालों की ज़बानी सुनने को मिल ही जाता है। कन्हैया ने काका से मुख़ातिब होते हुए कहा, “काका सुनाओ नो-झीनी झीनी बीनी चदरिया . . . आपको तो पूरा याद होगा।”

काका को तो मौक़ा चाहिए था . . . हो गए शुरू . . .

“झीनी झीनी बीनी चदरिया। 
झीनी झीनी बीनी चदरिया॥टेक॥

काहे कै ताना काहे कै भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया॥१॥

इड़ा पिङ्गला ताना भरनी,
सुखमन तार से बीनी चदरिया॥२॥

आठ कँवल दल चरखा डोलै,
पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया॥३॥

साँ को सियत मास दस लागे,
ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया॥४॥

सो चादर सुर नर मुनि ओढी, 
ओढि कै मैली कीनी चदरिया॥५॥

दास कबीर जतन करि ओढी,
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया॥६॥” 

बच्चो! सारांश में कह सकते हैं कि कबीर के काल में जब आम जनमानस नाना प्रकार की प्रचलित धर्म साधनाओं के फेर में पड़ अंधविश्वासों के जाल में फँसा था, तब कबीर ने अपनी भक्ति का ऐसा आधार जनता को दिया कि वह निर्गुण निराकार राम के रस में भावविभोर हो उठी। कबीर कहते हैं:

“कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढ़े बन माहिं।
ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं॥”

“जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, इहिं तथ कथ्यौ ज्ञानी॥” 

कबीर हर धर्म की अच्छाइयों से प्रभावित हुए और हर धर्म की बुराइयों पर उन्होंने प्रहार किये और उन्हें जनचेतना के द्वारा दूर करने का प्रयास किया। आगे फिर कभी . . . हाँ! ये सब पढ़ने वाले बच्चो आगे चलकर अपने पाठ्यक्रम में भी मिलेगा।

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