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दलित साहित्य के बढ़ते क़दम

 

जैसे-जैसे बहुजनों में जागृति आती जा रही हैं। वैसे-वैसे दलित/बहुजन जातियों में सामाजिक/धार्मिक/ राजनीतिक तथा साहित्यिक संगठनों की बाढ़ सी आती जा रही है। यहाँ केवल साहित्यिक संगठनों की बात की जा रही है। विदित हो कि दलितों/बहुजनों के सामाजिक परिवर्तन की दिशा में निरंतर बढ़ते क़दमों के साथ-साथ दलितों द्वारा रचित साहित्य का दिनों-दिन निखरना भी स्वाभाविक है। दलित-साहित्य के लगातार बदलते तेवर के क़िस्से आजकल कहीं न कहीं, किसी न किसी पत्र-पत्रिका में पढ़ने को मिलते रहते हैं। आजकल दलित साहित्य, बहुजन साहित्य, मूलनिवासी साहित्य . . . को केंद्र में रखकर अनेक पत्रिकाएँ भी प्रकाशित की जा रही हैं। कुछ अपनी निर्बाध गति से चल रही हैं और कुछ बीच में दम तोड़ गई हैं। हर्ष की बात है कि दिल्ली में डॉ. तेज सिंह द्वारा संपादिक बहुमुखी पत्रिका ‘अपेक्षा’ की पूर्ति करते हुए कवि व उपन्याकार ईशकुमार गंगानिया और उनकी अति सहयोगी टीम द्वारा ‘समय संज्ञान’ शिर्षांकित पत्रिका का निर्बाध निरंतर प्रकाशन हो रहा है। न केवल इतना अपितु नित्य-प्रति कहीं न कहीं दलित-साहित्य को लेकर अलग-अलग विषयों पर विभिन्न संस्थाओं द्वारा क्रमवार गोष्ठियाँ होती नज़र आती हैं। इतना परिवर्तन ज़रूर हुआ है कि साक्षात्‌ बैठकों का स्थान पर बैठकों ने डिजिटल मीडिया को अपना माध्यम बना लिया है। 

किन्तु आज भी कहीं दलित-साहित्य की परिभाषा का प्रश्न उठता है तो कहीं दलित-साहित्य के सृजन व प्रचार-प्रसार में आने वाली बाधाओं का। भारतीय साहित्य के ठेकेदारी करने वाले लेखकों द्वारा दलित-साहित्य को मान्यता प्रदान न किए जाने का प्रश्न भी बहस का मुद्दा बना रहता था जिस मुद्दे में काफ़ी कुछ गिरावट आई है। हालाँकि इस मामले में, दलित लेखकों को इसमें नहीं पड़ना चाहिए था कि ग़ैर-दलित लेखक/साहित्यकार/समीक्षक/मठाधीश दलितों द्वारा लिखे जा रहे साहित्य को मान्यता दें। वो मान्यता देंगे भी नहीं। हाँ! कुछ उदारवादी लेखक मान्यता दें भी दें तो कुछ ख़ास होने वाला नहीं है। दलित साहित्यकारों को अपने लड़ाई स्वयं ही लड़नी होगी। 

दलितों के साहित्य के नामकरण के सवाल आज भी मुँह बाए खड़ा है। कुछ का मानना है कि ये कहाँ की नैतिकता है कि दलित-साहित्यकार भारतीय हिन्दी साहित्य में अपनी अलग पहचान बनाने के भाव से जिस मैली-कुचैली जातीय-चादर को सामाजिक समानता पाने के नाम पर उतार कर फेंक देना चाहते हैं, उसी मैली-कुचैली जातीय-चादर को महज़ अलग पहचान बनाने के लिए अपने साहित्य पर डाले हुए हैं। कुछ ऐसे प्रश्न आज भी ज़िन्दा हैं जो दलित-साहित्य के नामकरण पर भी चोट करते हैं। बहुत से दलित साहित्यकार आज भी दलितों के साहित्य के ‘दलित-साहित्य’ के नामकरण से सहमत नहीं हैं। अधिकाधिक दलित साहित्यकारों का यह मानना है कि जब दलित-साहित्य का केन्द्र बिन्दु भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का चिंतन/दर्शन है तो फिर दलितों के साहित्य को “दलित साहित्य” के बदले अम्बेडकरवादी साहित्य के नाम से क्यूँ नहीं जाना चाहिए? यह भी की आजकल अलग-अलग जातियों/वर्गों ने अपनी-अपनी पहचान बनाने के लिए दलितों के साहित्य को दलित साहित्य, बहुजन साहित्य, मूलनिवासी साहित्य . . . आदि नामों में बाँट दिया है। दलित साहित्यकारों को इसका जवाब खोजना होगा। 

दलित-साहित्य दूसरे साहित्य से इसलिए भिन्न है क्योंकि यह मज़लूमों का और दलितों का साहित्य है। क्या यही सच्चाई है दलितों के साहित्य की? क्या दलित-साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य इसलिए दलित है कि वह दलित साहित्यकारों द्वारा लिखा गया है या फिर इसलिए कि इसे ग़ैर-दलित प्रकाशक अपनी पत्र-पत्रिकाओं में कोई स्थान नहीं देते। ऐसा लगता है कि बदलते सामाजिक सरोकार भी दलितों की मानसिकता को सकारात्मक प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। दुख की बात तो ये है कि ख़ुद दलित-साहित्यकार ही अपने साहित्य को दलित-साहित्य की संज्ञा देने में अग्रसर हैं, ग़ैर-दलितों की बात फिर कैसे अलग हो सकती है। वो तो चाहेंगे ही कि दलितों को दलित होने का भान हमेशा बना ही रहना चाहिए। 

किन्तु यह भी सत्य है कि दलितों के साहित्य ने साहित्य जगत अपनी एक पहचान बनाई है। कुछेक दलित साहित्यकारों का यह कहना है कि दलित-साहित्य, ग़ैर-दलित साहित्य से इसलिए अंतर्भेद रखता है क्योंकि ग़ैर-दलित-साहित्य में दलित-भावना और समस्याओं का ख़ुलासा तो हुआ है किन्तु दलित समस्याओं का कहीं भी निदान प्रस्तुत नहीं किया गया है। यह एक संवेदनशील तर्क है। किन्तु ऐसा भी देखने को मिला है कि जनपक्षधरता की बात करने वाले और अपने समाज का सबसे बड़ा शुभचिंतक मानने वाले दलित-साहित्यकार शोषित-पीड़ित वर्ग से ऊपर उठकर साहित्यिक मंचों पर अपनी जगह बनाने के चक्कर में ख़ुद ही अपनी ज़मीन से कट जाते हैं। आज का दलित-साहित्यकार भी ग़ैर-दलित-साहित्यकारों की भाँति समाज के आम-आदमी की समस्याओं को उठाता है और साहित्यिक लिबास में लपेटकर पाठकों के सिर पर लाद देता है। कोई दिशा देने से जैसे चूक जाता है। 

सामाजिक अपसंस्कृति के विरोध में खड़ा और सामाजिक विसंगतियों से जूझने वाला दलित साहित्यकार रचना कर्म तक ही अपनी इतिश्री समझता है। रचना के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के लिए किन-किन स्थितियों को उजागर किया जाए या देश व समाज की कुंठित मानसिकता को किस तरह बदला जाए या मानव-समाज के सामने अस्तित्व के संकट से किस प्रकार निपटा जाए, इसी तरह के अनेकानेक सवालों से जूझता दलित साहित्यकार जन-पक्षधरता और लोक-जागरण की बात तो करता है किन्तु उसका सारा प्रयास इसलिए बेमानी हो जाता है क्योंकि वह स्वयं सामाजिक, सांस्कृतिक, जातीय और भाषाई मुद्दों पर विचारोत्तेजक बहस में उलझ जाता है और उनसे निपटने का कोई समाधान नहीं खोज पाता। 

शोचनीय है कि भारत जैसे गणतंत्र में दलित-साहित्य का रथ पिछले 50 सालों में कितना आगे बढ़ा है। स्थापित दलित-साहित्यकार बढ़-चढ़कर दावे कर सकते हैं, किन्तु आम दलित-साहित्यकार क्या सोचता है, इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि कहीं वे दलित-साहित्य के दायरे में आकर फँस तो नहीं गए हैं या उन्हें सक्षम प्रतिनिधित्व तथा मार्ग दर्शन नहीं मिल रहा है। गए दिनों की बात और थी, दलित-साहित्यकारों में शिक्षा का अभाव होते हुए भी, समाजोन्नमुख साहित्य की रचना की जा रही थी। किन्तु आज के पढ़े-लिखे दलित-साहित्यकार केवल नाम कमाने के लिए न जाने क्या-क्या अनाप-शनाप लिखने पर उतारू थे किन्तु आज इस प्रवृति में ख़ासा भाषाई सुधार हुआ है। विगत में दलित साहित्यकार महज़ भोगे हुए सच की ही बात करने को अपना रचना-धर्म समझते थे लेकिन आज परिवर्तन की दिशा में काम करना भी उनके मिशन से बाहर का विषय नहीं रह गया है। ठीक है कि दलित-साहित्य में हरेक साल अलग-अलग विधा की बहुत सारी पुस्तकें प्रकाशित हो जाती हैं। वो चाहे जैसे भी हों। उल्लेखनीय है गत वर्षों में पुस्तक प्रकाशन की दृष्टि से दलितों के साहित्य ने काफ़ी अच्छे संकेत दिए हैं। फिर वो चाहे किसी भी वर्ग-साहित्य का हिस्सा रहे हैं। इस दृष्टि से दलित साहित्य ने मुख्य धारा का साहित्य होने का दावा भी पेश किया है। 

दलित-साहित्यकारों की दृष्टि में जीता-जागता साहित्य ही दलित-साहित्य की परिधि में आता है। सोद्देश्य साहित्य ही दलित-साहित्य है। समाज के प्रति उसकी अपनी एक विशिष्ट प्रतिबद्धता है। इसमें स्वतंत्र अभिव्यक्ति और गतिशीलता मौजूद होती है। धर्म के स्थान पर कर्म और ईश्वरीय शक्ति के बदले मानवीय शक्ति को बल प्रदान करता है दलित-साहित्य। यह कहना मिथ्या नहीं कि तथाकथित दलित-साहित्य जीवन का यथार्थ है। कलात्मकता तो इसमें होती ही नहीं। दलित-साहित्य सौंदर्य शास्त्र से परे का साहित्य है। यह एक रचनात्मक साहित्य है, रसात्मक नहीं। यह आम आदमी को उद्वेलित करता है। कुछेक का तो यहाँ तक मानना है कि दलित-साहित्य क्रांति को जन्म देता है जो कोई अन्य साहित्य नहीं करता, इस प्रकार दलित-साहित्य प्रत्येक दृष्टि से गतिवान और प्रगतिशील साहित्य है जो व्यापक दृष्टि से मालामाल है। यदि ऐसा है तो क्या ऐसे उत्कृष्ट साहित्य को “दलित-साहित्य” का नाम देना शर्मनाक नहीं? नामकरण के संदर्भ में क्या ऐसे साहित्य को दलित-साहित्य की संज्ञा देना वैचारिक सूक्ष्मता का प्रमाण नहीं लगता? दलित साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य के नामकरण पर दलित साहित्यकारों को पुनर्विचार करना चाहिए, ऐसी मेरी जिज्ञासा है। 

दलित-साहित्य केवल दलितों द्वारा रचित सहित्य है। दलितों की पीड़ा दलित-साहित्य का विषय है। अतः उसकी तह में आक्रोश, चीख-पुकार सामाजिक परिवर्तन हेतु फुफकारती ललक आदि जैसा भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। किन्तु इस चीख-पुकार में साहित्यिक गुणों का अभाव दलित-साहित्य को शिखर प्रदान करने में बाधक तो रहेगा ही। अतः यह नितांत आवश्यक है कि दलित-साहित्य के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ दलित-साहित्य में विधाओं की परिपूर्णता, भाषाई संतुलन, दिशात्मक अभिव्यक्ति, साहित्यिक सार्थकता पर बल दिया जाना चाहिए। शील और अश्लील के बीच का मार्ग अपनाना चाहिए। 

प्रायः दलित साहित्यकारों का यह कहना है कि राजनीति से अलग रहकर ही साहित्य सृजन सम्भव है। दलित-साहित्यकारों को धैर्य और लगन से भारतीय साहित्य के बीच अपनी पहचान बनानी चाहिए। शायद यह इस ओर एक इशारा है कि दस नावों में पाँव रखकर चलना ख़तरे से ख़ाली नहीं। लेकिन परिपक्व लेखन के लिए विभिन्न विधाओं का अनुशीलन करना भी आवश्यक है। इस सम्बन्ध में, नई विधाओं की खोज भी सम्भव है, इसको नकारा नहीं जा सकता।     कुछ भी हो, ऐसा प्रतीत होता है कि ग़ैर-दलित साहित्यकारों द्वारा दलितों की समस्याओं का कहीं कोई निदान प्रस्तुत नहीं किया जाता, नितांत हास्यास्पद लगता है क्योंकि समस्या को उभार कर सामने लाना ही उसके निवारण अथवा निराकरण का प्रथम सोपान होता है। दूसरे यदि दलितों द्वारा दलितोत्थान के लिए लिखा गया साहित्य ‘दलित-साहित्य’ है तो दलितों की समस्याओं को लेकर मुंशी प्रेमचन्द, सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आदि-आदि ग़ैर-दलित साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य दलित-साहित्य क्यों नहीं? यदि उनका साहित्य मात्र व्यावसायिक था तो दलित साहित्यकार क्या कर रहे हैं? केवल किताबों की संख्या बढ़ाने पर लगे हुए हैं। इनाम पाने की ललक में उलझे हुए हैं। अधिकतर दलित साहित्यकार थोथी ख्याति और सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए अनाप-सनाप ऊल-जलूल शब्दों के प्रयोग करने में ही जुटे रहा अपना कर्म समझते हैं। 

दलित-साहित्यकारों का यह भी मानना है कि दलित-साहित्य दलित-साहित्यकारों के अनुसार परम्परा के विरोध का स्वर है। विद्रोह की बात करता है दलित-साहित्य। समय परिवर्तन के साथ-साथ दलित-स्वर आक्रोशपूर्ण विद्रोह में बदलता नज़र आने लगा है। आज की व्यवस्था चाहे राजनीतिक है अथवा सामाजिक, अत्याचारी की भूमिका निभा रही है। ऐसे में यदि दलित विद्रोह का बिगुल बजाते हैं तो बुरा क्या है? किन्तु, “एक लीक को पीटते रहना ही विद्रोह नहीं कहा जा सकता”, यह कहना है, डॉ. रमेश कपूर का जो शाहदरा के श्यामलाल कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्राफेसर के पद पर कार्यरत हैं। उनका यह भी कहना है, “एक ही लीक को पीटते रहना दलित-साहित्य की प्रगति में बाधा बन सकता है। आज आवश्यकता है कि दलित-साहित्य समग्र विचार के साथ आगे बढ़े। अपने पक्ष में तर्क को जन्म दे। पारम्परिक सोच को चोट दे। सीधी-सपाट मान्यता को त्याग कर नई मान्यताओं को जन्म दे। नई दिशा प्रदान करे। महज़ लड़ाई के बल पर कुछ नहीं होने वाला। लड़ाई करने से पहले, लड़ाई जीतने के लिए आगे का मार्ग और मंज़िल दोनों की तलाश करना आवश्यक है। और यह तब ही सम्भव है, जब वैचारिक स्वर उभरेगा।” किन्तु खेद का विषय है कि दलित-साहित्यकार “जैसा सहा, वैसा कहा” की लीक पर ही चल रहा है। नई दिशा, लीक अथवा कोई नया स्वर पैदा करने में असमर्थ दिख रहा है। 

कुछ लोगों का मानना है कि दलितों का साहित्य आनंदित नहीं करता। किन्तु यह पूरी तरह सही नहीं है। मनोवैज्ञानिक स्थिति यह है कि कोई भी व्यक्ति वह कार्य करता है जिसमें उसे आनन्द मिलता है। तभी तो दलित साहित्यकार और अन्य साहित्य प्रेमी दलितों के साहित्य को हाथों-हाथ ले रहे हैं और आज काफ़ी बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति यह सिद्ध करती कि लोग परोक्ष या अपरोक्ष रूप से दलित/अम्बेडकरवादी साहित्य से आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। वैसे तो यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि उनके आनन्द की क्या परिभाषा है जिसे आप दलित-साहित्य में नहीं पाते या नहीं खोज पाते? हाँ! इतना तो ज़रूर हुआ ही है कि दलितों/बहुजनों को ‘कल का पराभव’ आज का ‘वैभव’ नज़र आने लगा है। 
 

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