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निरा आदमी

 

“कई दिनों के बाद आए हो। कहाँ गए थे?” 

“घर गया था।” 

“घर पर सब ठीक तो है?”

“हाँ, सब ठीक है। बस, बिटिया की तबीयत थोड़ी ख़राब चल रही है।”

“अब कैसी थी बिटिया?” 

“कुछ ठीक थी।” 

“कितने बच्चे हैं आपके?”

“बस दो।”

“बैठोगे नहीं? आओ यहाँ मेरे पास बैठो। आना-जाना ठीक रहा ना?” 

“हाँ, ठीक रहा।” 

“तुम बता कर क्यों नहीं गए? मैं जाने क्या-क्या सोचती रही इन दिनों?” 

“मेरे बारे में?” 

“और किसके बारे में?” 

“मुझसे इतना स्नेह क्यों है तुम्हें? देखो, मैं एक परदेसी हूँ। कुछ ही दिनों में चला जाऊँगा। फिर तुम्हें और भी पीड़ा होगी।”

“क्यों मुझे साथ नहीं ले चलोगे?” 

“कहाँ?” 

“अपने साथ, और कहाँ।”

“सूजी तुम अच्छी तरह जानती हो, मैं बाल-बच्चे वाला आदमी हूँ।” 

“ . . . तो मैं कौन तुमसे शादी रही हूँ। देखो! मैं दुनिया में अकेली हूँ। पति था। उसने मुझे नहीं, मैंने उसे छोड़ दिया है।”

“क्यों? ऐसी क्या बुराई थी उसमें?” 

“बेरोज़गार था। कुछ करता ना धरता। रोज़ पीने को चाहिए थी उसे।”

“बस इतनी-सी बात। काम तो कहीं ना कहीं, कभी ना कभी मिल ही जाता।”

“काम करने की नीयत हो तब ना।”

“थोड़ा समझाती-बुझाती उसे।”

“बहुत समझाया, नहीं माना। वह तो मुझसे धंधा करवाना चाहता था। कई बार अपने दोस्तों को ले आता था हरामी। कहता, इनकी सेवा किया कर, सब ठीक हो जाएगा। बड़े पैसे वाले हैं ये।” 

“अच्छा!”

“हाँ, कई बार मेरे साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती भी की उसने। उनके सामने मेरे कपड़े तक फाड़ दिए उस कमीने ने। एक बार तो मुझे जैसे नंगा ही कर दिया। किन्तु मैं उसका कहा न कर सकी . . . दूसरे कपड़े-लत्ते पहने और निकल गई घर से . . .।”

“ऐसा क्या?” 

“हाँ, आख़िर मैं क्या करती? कब तक लड़ती-झगड़ती? रोज़ शाम को पीकर आता। गाली-गलौज करता। मारता-पीटता। कब तक सहती यह?” 

“तो यह अहमद भाई आपके पति नहीं है?” 

“नहीं, यह इस स्कूल के मालिक हैं। पति से बच कर यहाँ आ गई थी। इनके यहाँ नौकरी करने लगी। इन्होंने दया की और नौकरी के साथ-साथ स्कूल में ही रहने को एक कमरा भी दे दिया।” 

“पर . . .”

“पर क्या?” 

“कुछ दिन ठीक-से गुज़रे। यह रोज़ साँझ हुए यहाँ आने लगे। घंटों मेरे साथ बैठे रहते, बात-बात में हँसी मज़ाक़ पर उतर आते . . .” 

“फिर?” 

“फिर क्या? आख़िर यह भी तो मर्द ठहरे। मैं कब तक बचती? बच कर जाती भी कहाँ? पर लोगों की नज़र में मैं इसकी दूसरी बीवी हूँ। बस! बदनामी से बची हूँ, वरना . . .”

“वरना क्या?” 

“छोड़ो, कुछ नहीं। अब तो यही सोचती हूँ, कहीं सहारा मिले तो यहाँ से चली जाऊँ। जब से तुम्हें देखा है, तुममें कोई अपना-सा नज़र आता है। सच मानो, मैं तुम्हारे परिवार के आड़े नहीं आऊँगी, अपना करूँगी। अपना खाऊँगी। किराए का मकान लेकर उसमें ही ट्यूशन पढ़ा‌ना शुरू कर दूँगी . . . तुम आँखों के सामने रहोगे तो मैं बहुत कुछ भूल-सा जाऊँगी।” 

“ऐसा क्या है मुझमें?” 

“सच बताऊँ? तुम्हारी शक्ल मेरे पति से मिलती है। मैं बहुत प्यार करती थी उसे . . . अब भी मुझे याद आता है। पर मैं धंधा नहीं कर सकती थी।”

“चलो ठीक है। पर मैं भी तो . . . उन-सा हो सकता हूँ। आख़िर मैं भी तो एक मर्द हूँ।” 

“नहीं, तुम मर्द नहीं हो निरे आदमी हो। उन जैसे हो नहीं सकते।” 

“यह तुम कैसे कह सकती हो?” 
“पिछले 15 दिनों में ख़ूब सोचा-परखा है मैंने तुम्हें। तुम्हारे साथ पिक्चर भी देखी है, अँधेरे-उजाले में साथ बैठे-उठे भी हैं हम, वह भी एक चारपाई पर। कोई ओर होता तो अब तक . . .” 

“हो सकता है, मैं ठंडा करके खाने में यक़ीन रखता हूँ।”

“क़तई नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता“

“क्यों?” 

“भूल गए पिक्चर हॉल की बात? मैंने कई बार आपके हाथ पर हाथ रखा था, कई बार टाँगों से टाँग अड़ाई थी। पर तुम थे कि लड़कियों की तरह बचते रहे। 

“मुझे समझाने पर उतर आए। और जानते हो, आग लगने में केवल क्षण भर का समय लगता है, दिनों-महीनों का नहीं। क्या कुछ नहीं किया, मैंने तुम्हारे साथ पिछले पन्द्रह दिनों में।”

“हाँ, मेरे खुले पत्र के जवाब में, जो मैंने तुम्हारे कमरे की खिड़की से छुप कर अंदर डाल दिया था, तुम्हारी वह कविता ही काफ़ी थी तुम्हें समझने के लिए।” 

“कौन-सी कविता . . .?” 

“इतने अनजान मत बनो। 

“सच! मुझे मालूम नहीं है। 

“अच्छा? नहीं है तो . . . सुनो! मैं एक परदेसी हूँ/ मेरे नज़दीक मत आओ . . . कल चला जाऊँगा/ फिर तुम्हें एक की नहीं/ दो की याद सताएगी/ अब एक की आग में जलती हो/ कल से दो की आग में जलोगी/ सुनो! मैं एक परदेसी हूँ /कल चला जाऊँगा/मेरे नज़दीक मत आओ जल जाओगी।”

“यह मेरी कविता है?” 

“फिर किसकी है? कितने बहाने ढूँढ़ोगे मुझसे बचने के?” 

“सुनो! रात के बारह बज चुके हैं। सो जाओ अब।”

“नींद आए तो सोऊँ ना?” 

“आ जाएगी, कोशिश करो।” 

“खड़े क्यों हो गए? यहीं लेट जाओ ना।”

“नहीं, अब चलता हूँ, शुभ रात्रि!” इतना कह मैं अपने कमरे पर आ तो गया पर सो नहीं पाया। सोचते-सोचते पिछले 15 दिनों के घटना चक्र में डूब गया। मेरे यहाँ आने के दूसरे दिन की ही बात है।

“साब . . . मैं मातादीन, नाश्ता लाया हूँ।”

“ठीक है, मेज़ पर रख दो।” 

“ठीक है साब! दाल के पराँठे हैं। साब, जल्दी खा लेना, नहीं तो ठंडे हो जाएँगे।”

रोज़ इसी तरह नाश्ता आता। में खा लेता। एक दिन क्या हुआ कि नाश्ता करते समय मेरे बॉस आ गए जो इसी स्कूल के दूसरे कमरे में रह रहे थे . . . बोले, “अरे अकेले-अकेले कर रहे हो नाश्ता . . .।” 

“क्यों सर! आपने नहीं किया?”

“नहीं तो, कहाँ से आता है?”

“सर! मैं तो समझता था कि आप ही मुझे नाश्ता भेजते हैं।” 

“तो क्या नाश्ता रोज़ आता है?” 

“जी, सर”

“कौन लाता है?” 

“मातादीन, सर।”

“कौन है यह मातादीन?” 

“पता नहीं सर।” 

“मैंने कभी पूछा ही नहीं, समझता रहा कि आपने ही कोई व्यवस्था की होगी।”

“अच्छा! . . . ठीक है . . . कल पूछना उससे, कहाँ से कौन भेजता है?” 

“ठीक है, सर।”

अगले दिन . . . 

“मातादीन! ज़रा यहाँ आओ।”

“जी साब?” 

“अरे! साहब को नाश्ता नहीं पहुँचाते क्या?”

“जी नहीं साब! मैडम केवल आपके लिए नाश्ता भेजती हैं।”

“मैडम . . . कौन-सी मैडम?”

“साब! सूजी मैडम, इस स्कूल में टीचर हैं।”

“टीचर और नाश्ता? और वह भी मुझ अकेले को . . . कुछ समझ नहीं आया . . .।”

“क्या साब?” 

“कुछ नहीं। अच्छा सुन, कल से नाश्ता मत लाना।”

“क्यों साब?” 

“अरे तू नहीं समझेगा। साहब को नाश्ता नहीं मिलता ना, नाराज़ हो जाएँगे।” 

“ठीक है साब . . . मैं मैडम को बोल दूँगा।” और वह चला गया।

 . . . फिर अगले दिन मेरे बास आए और आश्चर्य से पूछा, “अरे! तूने अभी नाश्ता नहीं किया? बहुत स्वादिष्ट पराँठे हैं, दाल के। खा ले वरना ठंडे हो जाएँगे।”

“आपको कैसे पता, सर?” 

“अरे! आज मातादीन मेरे लिए भी नाश्ता लाया था . . .”

“अच्छा!” 

“हाँ, अब कर ले नाश्ता। फिर ऑफ़िस चलते हैं।” 

रोज़ ऐसा ही सिलसिला चलता रहा। अब सूजी मुझे और मेरे बॉस को भी नाश्ता भेजने लगी थी। साँझ को स्कूल के प्रांगण में सब साथ-साथ होते, बातें करते। लगता, जैसे सब एक ही परिवार के हैं। एक दिन की बात है, छुट्टी का दिन था। मातादीन नाश्ता लेकर आ गया उसने दरवाज़ा बजाया। 

“अरे! नाश्ता ले आये मातादीन . . . 

“अच्छा, आज एक काम और कर दो। 

“क्या साब?” 

“ज़रा बाज़ार से सूई-धागा तो ख़रीद ला।” 

“क्यों साब?” 

“कमीज़ में बटन लगाने हैं।”

“अच्छा साब।”

♦    ♦    ♦

“मैडम, मैं ज़रा बाज़ार जा रहा हूँ।” 

“क्यों?” 

“साब ने सूई धागा मँगवाया है।” 

“क्यों?”

“कमीज़ में बटन लगाने हैं।” 

“अच्छा तो ऐसा कर, साहब से कमीज़ ले आ। मैं लगा दूँगी।” 

“जी! मैडम, जाता हूँ . . .” 

“साब।” 

“हाँ, ले आया सूई धागा?”

“नहीं साब! मैडम ने कमीज़ मँगाई है। कहती हैं, मैं लगा दूँगी।”

“तूने मैडम को क्यों बताया?” 

“बताया नहीं साब। मैंने बाज़ार जाने को कहा था उनसे। वह पूछ बैठीं, क्यों? फिर मैंने सब कुछ बता दिया।”

“पागल है तू। जा, मैं ख़ुद ले आऊँगा” 

“नहीं साब। मैडम ने कमीज़ मँगाई है। नहीं ले गया तो मुझे झाड़ पड़ जाएगी।”

“अच्छा! अब . . . बस कर . . . और जा।”

मातादीन तो चला गया किन्तु मेरी नज़र में आया कि मैडम कुछ तेवर में मेरी तरफ़ आ रही थी। मेरे पास आते ही उनकी पहला ही सवाल था . . .

“तुमने मातादीन को कमीज़ क्यों नहीं दी? मुझे अच्छा नहीं लगा।”

“क्यों?” 

“क्या हो जाएगा इसमें? मैं घिस जाऊँगी क्या?” 

“नहीं यह बात नहीं है।”

“लाओ, इधर लाओ कमीज़ छोड़ो, क्या मेरा सुकून तुम्हें पसंद नहीं?” . . . इस प्रकार हम दोनों के बीच की दूरी घटती गई। इस दिन के बाद एक और एक संदर्भ जुड़ता चला गया। घर और परदेस का अंतर भी जैसे मिट-सा गया। एक तरफ़ मुझे परदेस का डर सताता, दूसरी और उसकी पीड़ा और अपनत्व मुझे अपनी ओर खींचता। बड़ी असमंजस्य भरी स्थिति थी मेरी। अपनों की तरह इन्तज़ार करती थी वह मेरा। लेकिन मैं मन ही मन परेशान रहता था। यह चर्चा बंद ही हुई थी . . . कि इस बीच मेरे बॉस की पत्नी और बच्चे भी आ गए। बास की पत्नी उम्र दराज़ थीं। मातादीन के ज़रिए मेरे और सूजी के बीच की बात उन तक भी पहुँच गई। मैं अपने बॉस की पली को ‘अम्मा’ कहता था। 

एक दिन ऑफ़िस से लौटा ही था कि “आ गए बेटा।”

“हाँ! अम्मा।”

“आओ! इधर बैठो मेरे पास।”

“जी अच्छा।”

“एक बात कहूँ?”

“जी कहो।”

“सूजी तुम्हें बहुत प्यार करती है। सारे दिन तुम्हारी बातें करती रहती है। छोटे साहब ऐसे हैं . . . छोटे साहब वैसे हैं। पता नहीं क्या-क्या बात करती है। बेटा! सूजी बड़ी अच्छी लड़की है।”

“अम्मा! तुम नहीं जानती कि मैं . . .”

“मैं सब जानती हूँ, तू शादीशुदा है, बाल-बच्चेदार है और . . .” 

“अम्मा फिर भी तुम उसकी बातों में आ गई? आख़िर वह मुझसे चाहती क्या है?” 

“बस! इतना कि जब तक हम यहाँ हैं, तू उससे दूरी मत रख . . . उसके साथ बैठा कर . . . उसके साथ घूमा कर और देख! तेरे साथ होने से उसे बहुत सुकून मिलेगा।”

“मगर कब तक? कल कुछ और हो गया तो?” 

“कुछ नहीं होगा। वह बहुत समझदार लड़की है और तू भी। सब कुछ समझती है। देख! कुछ ही दिनों की बात तो है। काम पूरा हो जाएगा। हम सब यहाँ से चले जाएँगे। फिर सब कुछ अपने आप ख़त्म हो जाएगा।”

“मैं ऐसा नहीं समझता . . .”

“तू कैसा आदमी है रे! कुछ दिन के लिए तू किसी का दुख नहीं बाँट सकता? भूल गया मेरे आने से पहले के वे दिन, जब रोज़ सवेरे तुझे वह नाश्ता भेजती थी। तेरी क़मीज़ में बटन टाँकती थी? क्या लगता है तू उसका? जो तेरी इतनी चिन्ता रखती है . . . देख बेटा! दुनिया में सब एक से नहीं होते। वह ऐसी लड़की नहीं है। तेरी कविता पढ़ाई थी उसने हमें। उसे बड़ी अच्छी लगती है। कई-कई बार पढ़ती है उसे दिन भर में।”

“ठीक है पर कविता का भाव क्यों नहीं समझती?” 

“समझती है . . . अच्छी तरह समझती है। तभी तो पढ़ती है उसे बार-बार। कल तेरी एक किताब भी आई थी, जिसमें तेरी जीवनी छपी (1981) है। उसको भी उठा ले गई। कहती है, इसे में अपने पास ही रखूँगी। लौटाऊँगी नहीं।”

“अच्छा ठीक है . . . और कुछ?” 

“और कुछ नहीं। चल! अब हाथ-पैर धोकर चाय पी ले और सुन, हम तेरे सगे नहीं हैं पर तू हमारा सगा-सा है। तेरा बुरा नहीं चाहेंगे। ले! वह तेरा इंतज़ार करते-करते वो अभी गई है। ज़रा मिल आना उससे।“

“. . . ठीक है?” 

इसके बाद की अवस्था कुछ सहज तो अवश्य हुई थी। फिर भी मैं प्रायः विचारों के झंझावात में फँसा रहता। सोचता रहता सूजी बड़ी पागल है। कुछ सोचती ही नहीं। ख़ैर दिन गुज़र गए। संवेदनशीलता बढ़ती गई। रोज़ का मिलना-जुलना बेशक जारी रहा। पर मैं परिस्थिति से समझौता नहीं कर पाया। मन ही मन आशाओं और शंकाओं के बादल उमड़ते और छँट जाते। पता नहीं, क्या-क्या सोचता रहता रात भर कि सुबह के चार बज गए। नींद जाने कहाँ चली गई। पाँच बजे मातादीन चाय लेकर आ गया।

“साब! पाँच बज चुके हैं। आज सोते ही रहेंगे क्या? चाय पी लीजिए।”

“नहीं, आज मैं चाय नहीं पीऊँगा। वापस ले जा।” 

“साब! पी लो ना। मैडम मुझ पर नाराज़ होंगी।”

“होने दे . . . मैं आज चाय नहीं पीऊँगा।”

“साब! एक बात कहूँ, चाय पी लो साब। मैडम ने ख़ुद बनाई है। वैसे भी आज मैडम सारी रात नहीं सोई।”

“अच्छा रख दे यहाँ मेज़ पर . . .”

“साब, पी लेना इसे, फेंकना मत . . . साब”

“अच्छा जा . . . पी लूँगा।” 

“साब!”

“अब क्या है?” 

“साब! मैडम बहुत परेशान रहती हैं। जब से आप आए हैं ना साब, मैडम थोड़ा हँस-बोल लेती हैं, वरना वर्षों से चुप ही देखा है मैंने उन्हें . . . साब! कुछ करो ना मैडम के लिए।” 

“क्या करूँ?” 

“मैं क्या जानूँ साब?” 

इतना कहकर मातादीन तो चला गया। पर सूजी के ना सोने की बात सुन कर मैं और भी उलझ गया। मन किया कि उस कहानी को यहीं बन्द कर दूँ। कहीं और जाकर रहने लगूँ। अन्ततः स्कूल में न रहने का फ़ैसला कर ही लिया। स्कूल में न रहने की बात मैं किसी से कर तो नहीं पाया, पर बात तो खुलनी ही थी, खुल गई। 

“सुना है, तुम कहीं और रहने जा रहे हो?” 

“किसने कहा?” 

“मातादीन ने।” 

“हाँ, उसने सच ही कहा है।” 

“कहाँ रहोगे।”

“ऑफ़िस का ही एक लड़का है। अकेला रहता है। बस! उसी के साथ।”

“यहाँ क्या परेशानी है।”

मैं कुछ तुतलाते हुए बोला कि कुछ भी नहीं।

“तो मुझसे दूर जाना चाहते हो?” 

“ऐसा नहीं है सूजी। क्यों हर बात को अपने से जोड़ लेती हो? आख़िर मुझे आज नहीं तो कल जाना ही है। फिर कौन सा शहर छोड़ कर जा रहा हूँ।”

“शहर ही क्यों नहीं छोड़ देते?” 

“तुम सचमुच पगला गई हो। सूजी! क्या तुम नहीं जानती कि मेरे नज़दीक आकर तुम एक पीड़ा और ख़रीद रही हो?” 

“पीड़ा मैं ख़रीद रही हूँ और चिंतित तुम हो? क्यों?” 

“पूछना चाहती हो तो सुनो—मैं नहीं चाहता कि तुम्हें मेरी याद जीवन भर सताती रहे। मुझे आज की नहीं, तुम्हारे कल की चिंता है। थोड़ी-सी दूरी तुम सह नहीं पातीं, जीवन भर की दूरी कैसे सहोगी? कैसे बँधाओगी ढाढ़स अपने आप को? मुझे नहीं लगता कि मैं तुम्हें कभी भुला पाऊँगा। फिर तुम कैसे भूल पाओगी मुझे? . . . सूजी! सुनो, मेरी ओर देखो . . . देखो इन आँखों में। सच! मैं तुम्हें धोखा देना नहीं चाहता। मेरा यक़ीन करो। आज की परिस्थिति में तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर सकता।”

“इतना तो कर सकते हो, जब तक इस शहर में हो, यहीं इसी स्कूल में रहो। हाँ, मैं यक़ीन दिलाती हूँ कि जब तक तुम यहाँ रहोगे, मैं तुम्हारे सामने कभी नहीं आऊँगी। बस! अपने कमरे की खिड़की कभी बन्द मत करना . . .”

इतना कहना था कि सूजी फफक कर रोने लगी। मैं भी अपने आप को नहीं सँभाल पाया। सूजी मेरे कंधों पर झूल गई। हम सहसा आलिंगनबद्ध हो गए। दोनों की आवाज़ सूख गई। बहुत देर तक सन्नाटे की तटस्थता बनी रही। फिर सूजी एकदम उठी और तेज़ी से बाहर चली गई। मन ही मन मैंने भी स्कूल छोड़ने का इरादा बदल दिया। मैं उठा और खिड़की खोल दी। मैं जितने दिन भी वहीं रहा, खिड़की खुली रही, पर सूजी फिर कभी नज़र नहीं आई। आख़िर मेरा शहर छोड़ने का दिन आ ही गया। चलते-चलते मैंने कमरे की खिड़की बन्द ही की थी कि सूजी मेरे सामने थी। चुपचाप एक मूरत सी। आँखों में आँसू लिए जैसे कह रही हो, अलविदा। मैं चाह कर भी उससे कुछ न कह सका। उससे आँख मिलाने की हिम्मत तक नहीं हो रही थी।

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