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उसने सहसा मेरा माथा चूम लिया

 

शायद मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ता था। इससे पहले मेरा पढ़ने-लिखने से कम ही सरोकार था। बस! खेलना कूदना, साथियों के साथ मार-पीट करना, प्रत्येक पर अपनी बात मनवाना, जाने क्या-क्या मेरी शरारतों में शामिल था। पूरा गाँव परेशान रहता था मुझसे। सबका एक ही मत था—ये न पुलिस भर्ती हो सकेगा और न कुछ और ही बन सकेगा। पाँच फुटा ये छोरा बदमाश या डाकू भी तो नहीं बन सकता। इसकी ये सब बचपनी शरारतें हैं। अभी नादान है ये। समय शायद रास्ते पर ले आए। यदि इसने ये तमाम हरकतें छोड़ दीं तो कुछ आशा की जा सकती है। पर ऐसा लगता नहीं है। मैं यह सब कुछ सुनता और हँसी में उड़ा देता। आज जब, मैं ये सत्य लिख रहा हूँ, मेरे वो अपने गाँव वाले शेष नहीं रहे हैं। सबके-सब चल बसे हैं। एक दिन सबका ये हश्र होना तय है . . . मेरा भी। 

सपने आना एक सत्य है। सब सपने देखते भी हैं और बुनते भी हैं . . . बुनने भी चाहिएँ। खुली आँखों सपने देखना तो अपने वश की बात होती है किन्तु नींद में सपनों का आना . . . अपने वश की बात नहीं होती। मैं दोनों ही अवस्थाओं से गुज़रा हूँ . . . नींद में भी सपने देखे भी हैं . . . और पाले भी हैं . . . अक़्सर ही ऐसा होता था कि थोड़ी-बहुत पढ़ाई करके जैसे ही नींद में घिरता . . . यानी सोता तो छोटे–बड़े सपनों का आना एक सहज अवस्था होती थी। 

मैं घर के अगले भाग में बनी दुकड़िया में अक़्सर अकेला ही सोता था। भाई-भाभी और उनके बच्चे अन्दर वाले कोठों (कमरों) में सोते थे। अब मैं जैसे-तैसे बारहवीं कक्षा में आ गया था। रात को देर तक पढ़ना मेरा नित्य कर्म बन गया था। कई बार पढ़ते-पढ़ते आँखों में नींद भर आती तो दीया बन्द करता और सो जाता . . .। कुछ घरों में दीए की जगह लालटेन ने ले ली थी किन्तु मेरे पास अभी भी दीया ही था। एक दिन की बात है कि मैं पढ़ते-पढ़ते थक-हारकर दुकड़िया का दरवाज़ा बन्द किए बग़ैर ही सो गया . . . दीया भी जलता ही रह गया। सोया ही थी कि मैं स्वप्न की चपेट में आ गया। स्वप्न में एक धवल-वस्त्रा रूपसी . . . उम्र में मुझसे काफ़ी बड़ी . . . मेरे सिरहाने ऐसे आकर खड़ी हो गई कि जैसे मेरी और उसकी बहुत पुरानी दोस्ती हो। (. . .  हालाँकि बारहवीं कक्षा और . . . लड़की से दोस्ती उस गए समय में कहाँ सम्भव था) उसका बर्ताव प्रौढ़ अवस्था वाला ही लग रहा था . . . सिरहाने से झुक कर उसने सहसा मेरा माथा चूम लिया . . . और कहा, “अब तुझे मेरे साथ चलना होगा।” इतना कहकर वो अचानक ग़ायब हो गई . . . मेरी नींद भी टूट गई। खाट में पड़ा–पड़ा जाने क्या-क्या सोचता रहा . . .। कभी-कभी इधर-उधर ताक-झाँक करके जैसे उसकी तलाश करता . . . फिर न जाने कब नींद आ गई और मैं सूरज के उगने पर ही उठा। 

ये ग्यारह जनवरी 1968 का दिन था। जब सवेरे उठा तो पाया कि मुझे बड़े ज़ोरों का बुख़ार चढ़ा हुआ था . . . शायद सपने से घबरा कर। अचानक भाभी दुकड़िया में आई और बोली आज उठना नहीं क्या . . .? मैंने भाभी की ओर मुँह घुमाते हुए उसे देखा . . . वो मेरा चढ़ा हुआ चेहरा देखकर सकते में आ गई . . .। उसने मेरे माथे पर हाथ रखा और सन्न रह गई . . .। तेज़ गर्म माथा देखकर . . . घबरा गई और . . . भरी हुई आँखें लेकर मुझे डाँटने लगी, “तूने मुझे बताया क्यूँ नहीं . . . मेरी तबियत ख़राब है?” वो मुझे डाँटे ही जा रही थी . . . और मैं मूक बना उसका चेहरा देखकर ख़ुद घबरा रहा था . . . कहता भी तो क्या कहता . . .? मुझे ख़ुद ही कुछ पता नहीं था . . . भाभी ने मुझे हाथ पकड़कर बिठाया . . . और मेरे पास ही बैठकर जाने क्या-क्या विलाप किए जा रही थी। दरअसल भाभी मेरी कुछ ज़्यादा ही चिंता किया करती थी। वो मेरी भाभी कम और माँ ज़्यादा थी। भाभी के मुझसे पाँच-छह महीने बड़ी एक लड़की थी। मुझे बताया गया कि जब मैं बहुत छोटा था तो माँ की एवज़ भाभी ही मुझे स्तनपान करा दिया करती थी। इस पर किसी को कोई एतराज़ भी नहीं होता था। मेरे स्कूल आने-जाने का ख़्याल न तो भाई को और न ही माँ को रहता था, यह काम भी भाभी का ही होता था। भाभी के कोई लड़का नहीं था। वह मुझे ही बेटे के जैसा प्यार देती थी। माँ जब भैंस का दूध निकालती थी तो मुझे रोज़ाना भैंस के पास बिठाकर ताज़ा निकाला गया कच्चा दूध पिलाया करती थी। 

मेरे हक़ में जो बात रही वो थी कि भाभी ने ये सारी कहानी बड़े भाई को पूरा दिन गुज़र जाने के बाद दी। वैसे वो उन्हें समय से बता भी देती तो उन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था। उन्हें ताश खेलने और नेतागीरी करने के अलावा किसी से कोई मतलब नहीं था। 

ख़ैर! देखते-देखते भाभी ने तमाम टोने-टोटके कर डाले . . . मेरी अवस्था बिगड़ती जा रही थी . . . जैसे मूर्छित अवस्था में था . . .। प्रशिक्षित चिकित्सक तो गाँवों में उस समय होते ही नहीं थे . . . टोने-टोटके और बाबाओं की दुआओं के बल पर ही गाँव ज़िन्दा रहा करते थे। सो भाभी ने भी तमाम देवी-देवताओं के नाम की मिट्टी की भेलियाँ (प्रतीक) बनाकर मेरी खाट के सिरहाने पर तैनात कर दीं . . . कुछ नीम की पत्ते वाली टहनियाँ भी मेरे सिरहाने रख दीं। यह सब कुछ मैंने होश आने पर देखा . . . किन्तु पता नहीं क्यों ये टोने-टोटके मुझे जन्म से ही पसंद नहीं आए? . . . स्वतः ही मेरी मानसिकता बनी हुई थी . . . किसी सोच के तहत नहीं। ऐसे ही एक-दो दिन निकल गए . . .। मैं अक़्सर देवी-देवताओं के नाम की मिट्टी की उन भेलियों को ही देखता रहता . . . भाभी कुछ पूछती तो इधर-उधर गर्दन हिला देता . . . और “कुछ नहीं” कहकर भाभी से पीछा छुड़ाता। एक दिन मौक़ा पाकर मैंने सभी देवी-देवताओं की भेलियाँ बारी-बारी से दुकड़िया के आगे वाली गंदी नाली में फेंक दीं। 

जब भाभी को मेरी इस हरकत का पता चला तो वो आग-बबूला हो गई। जाने क्या-क्या न कहा उसने मुझे। कहती भी क्यों न . . . मैं जैसे उसका बड़ा बेटा था। मुझे बताया गया था कि जब मैं नवजात शिशु था तो वो मुझे अपने स्तनों से दूध पिलाया करती थी। यहाँ ग़ौरतलब है कि भाभी की बड़ी बेटी लगभग मुझसे केवल छह माह बड़ी थी। सो इस दूध स्तनपान कराने की बात पर भरोसा किया जा सकता है . . . वो मुझे खोना नहीं चाहती थी . . . ख़ैर! दो-तीन माह की बीमारी के बाद मैं ठीक हो गया। मौत के मुँह से तो निकल आया किन्तु ग्यारह मई 1968 तक बिस्तर पर रहने के कारण मैं 1968 में बारहवीं की परीक्षा भी नहीं दे पाया। 

अब जब सब कुछ सामान्य हो गया तो मुझे अलग तरह के सपने आने शुरू हो गए। एक रात मैंने सपने में शौच की। शौच को खुलकर आई किन्तु पेशाब की चन्द बूद ही आईं कि झटके से नींद टूट गई . . . थोड़ी देर में पुनः सो गया। सुबह उठा तो ख़बर मिली कि गाँव के ही फ़लाँ . . . राम का निधन हो गया है। इसे एक संयोग मानकर मैं शांत रहा और किसी को भी अपने सपने के बारे में कुछ भी नहीं बताया . . . कुछ दिनों बाद फिर ठीक पहले जैसा ही सपना फिर आया . . . सुबह उठने पर ख़बर मिली कि आज . . . फ़लाँ . . . राम का निधन हो गया . . . मैंने सपने की कहानी फिर भी किसी को नहीं बताई . . . और मन ही मन परेशान और मौन रहने लगा . . .। किसी से कोई बात करने का मन ही नहीं करता था। कुछ दिन तो यूँ ही गुज़र गए किन्तु मेरा मौन भाभी को खटकने लगा . . .। उसे लगा कि मुझे कुछ परेशानी है . . . वो मुझसे अक़्सर मेरी परेशानी का सबब पूछने लगी . . . “क्या हो गया है तुझे? बताता क्यों नहीं . . . जब चुप रहने को कहा जाता था तो चुप नहीं रहता था और अब . . . . . .। जब किसी ने कुछ कहा भी नहीं तो चुप रहने लगा है . . . क्यों?” मैं शांत ही रहा . . . कुछ भी तो नहीं कहा गया मुझसे . . .। इस सिलसिले के चलते शाम हो गई . . .। नौ-दस बजे होंगे कि भाभी अपने कमरे में सोने चली गई और मैं दुकड़िया में चुप्पी ओढ़कर ही सो गया . . . सोया ही था कि वही पुराने वाला सपना फिर दिखा कि मैं भन्नाकर जग गया और बिना कुछ सोचे-समझे भाभी के पास जा पहुँचा . . . ठीक-ठीक समय तो पता नहीं . . . हाँ! प्रात: के लगभग चार–पाँच बजे होंगे। ग़ौरतलब है कि उन दिनों घड़ी तो कुछ ही नामचीन लोगों के पास हुआ करती थी . . . हमारे पास नहीं थी . . .। उन दिनों आसमान के तारों को देखकर ही समय का अन्दाज़ा लगाया जाता था। 

भाभी को ऐसे झकझोरा कि जैसे कोई भूचाल आ गया हो। वह बड़ी मुश्किल से उठी . . . मुझे अपने सामने देखकर जैसे घबरा गई . . . आव देखा न ताव . . . मुझे अपनी बाँहों में भर लिया . . .। मैं अवाक्‌ था . . . भाभी को किसी अनहोनी का भान हुआ और उसकी आँखें भर आईं . . . रुआँसे स्वर में बोली . . . “आ . . . अब बता क्या हो गया है तुझे? . . . पता नहीं . . . क्या हो गया है मेरे लाल कू . . .?” इतना होने पर मैंने सोचा कि अब मुझे सब कुछ बता देना चाहिए . . . मैं अचानक भावावेश में कह उठा, “गाँव में कोई और मरने वाला है आज।” . . . इतना सुन कर . . . भाभी ने मुझे एक ज़ोरदार चाँटा रसीद कर दिया और फिर दुखी मन से बोली, “पढ़ता-लिखता तो है नहीं . . . पता नहीं फ़ालतू की बातें कहाँ से लाया है।” इतना कहकर उसने पुनः एक और चाँटा मारा . . . और मुझे सीने से लगाकर फफककर रोने लगी। मैं रोता हुआ दुकड़िया की ओर बढ़ा और सो गया . . .। 

भाभी अपने कमरे में ही सो गई। जैसे ही दिन निकला . . . ख़बर उड़ी कि आज फ़लाँ . . . फ़लाँ राम मर गया। भाभी ने ज्यूँ ही ख़बर सुनी . . . भागी-भागी दुकड़िया में आई और झटके से मुझे जगाया। मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचकर अन्दर वाले कमरे में ले गई . . . 

कहा-सुना कुछ भी नहीं . . .। उसने मुझे ज़ोर का झटका देकर खाट पर बिठा दिया . . . कहा, “चुपचाप यहीं बैठा रह . . . बाहर बिल्कुल मत निकलना . . . बाहर निकला तो इतना मारूँगी कि रोना भूल जाएगा।” मैं कुछ भी नहीं समझ पा रहा था . . . भाभी ने मुझे कुछ बताया भी नहीं . . . मैं चुपचाप खाट पर लेट गया। मैंने देखा कि भाभी के चेहरे पर मेरे प्रति ग़ुस्से की एवज़ चिंता का भाव ज़्यादा था। कहा, “आज घर पर ही रहना, स्कूल मत जाना।” जब मुझे पता चला कि आज गाँव में कोई मर गया है तो मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि भाभी की चिंता का कारण क्या है! 

कुछ ही दिन गुज़रे थे कि मैंने भाभी को फिर किसी और के मरने की बात कही, वह भी भौर हुए। यह सुनकर उसने पहले मुझे ताका और तपाक से एक चाँटा जड़ दिया . . . और न जाने अनाप-सनाप क्या-क्या न कहा मुझे। इसके बाद वो मुझे अपनी बाँहों में भरकर फफक-फफक कर रोने लगी। पढ़ी-लिखी नहीं थी . . . अनपढ़ थी। “क्या हो गया है मेरे लाल कू” यह उसका जुमला बन चुका था। अब भाभी को किसी के मरने-जीने का दुख नहीं रह गया था। उसे दुख था तो महज़ इस बात का कि कहीं कोई भूत-प्रेत तो मेरे सिर नहीं चढ़ बैठा है। आज उसने मुझे न डाँटा और न फटकारा . . .। मुझे अब तक यह भी पता नहीं था कि भाभी ने भाई को भी मेरे बारे में कुछ बताया है कि नहीं? खाना बनाया, खिलाया और रुआँसी सी चुपचाप एक कोने में बैठ गई मगर उसकी नज़रें घर के दरवाज़े पर टिकी थीं। देखा कि भाई के साथ एक तथाकथित “भगत” (बाबा) घर में प्रवेश कर गए . . . उसे देखकर मैं भाई से पूछ बैठा, “किसलिए लाए हो इसे?” और मैंने भगत को भाग जाने को जैसे ही कहा कि भाई ने मुझे डाँट दिया। 

“एकदम चुप रह।” 

किन्तु मैं चुप न रह सका। और इस तरह भगत ख़ुद ही घर से चला गया। बदले में भाई ने एक ज़ोर का चाँटा रसीद कर दिया। भाई का यह पहला चाँटा था। भाभी तो जाने कितने चाँटे मार चुकी थी आज तक मुझे, किन्तु भाभी के चाँटे और भाई के चाँटे में ज़मीन और आसमान का अंतर था। भाई के चाँटे ने मेरा मुँह मोड़ दिया . . . किन्तु भाभी का चाँटा इतना स्नेह भरा होता था कि मुझे हर बार कुछ न कुछ सोचने को मजबूर करता था। भाभी के चाँटे में अपनापन होता था। वह चाँटा मार तो देती थी, बदले में चुपके-चुपके ख़ुद ज़्यादा रोती थी जैसे उसके द्वारा मारा चाँटा उसको ही लग गया हो। 

सपना मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था। जब भी मैं वैसा सपना देखता, किसी न किसी के मरने की ख़बर ज़रूर मिलती . . .। बेशक ये एक संयोग भर ही होगा . . .। जो नित्यप्रति होने वाली घटनाओं से मेल भर खा रहा था, ऐसा कुछ भी न था कि मेरे सिर कोई भूत-प्रेत आ गया हो . . . किन्तु भाभी को कौन समझाए . . . उसकी तो चिंता निरंतर बढ़ती चली जा रही थी . . . तरह-तरह के टोटके व बाबाओं के चक्कर में पड़ी रहने लगी। मेरा अंतर्मन भी डोलने लगा था . . . तंग आ गया था इस सबसे मैं . . . आख़िर एक दिन मैंने सपने वाला भेद भाभी को बता ही दिया . . . फिर क्या था कि न तो कभी वो सपना ही मुझे आया . . . और न किसी के मरने का पूर्वाभास ही, जिसे मैं उस सपने की देन मान चुका था। सदैव की भाँति मरना-जीना चलता रहा . . . किन्तु अब मैं और भाभी दोनों सामान्य जीवन की ओर मुड़ आए थे।
 

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