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चाइल्ड इज़ दी फ़ादर ऑफ़ दी मैन

यह किसी एक वक़्त की कहानी नहीं है . . . बिखरी हुई कहानी है। जीवन में न जाने कितने पड़ाव आते हैं . . . बाल्य-काल, बचपन, यौवनावस्था और आख़िरिश बुढ़ापा . . . सबको इन हालातों से गुज़रना होता है, किन्तु हैरत कि कोई भी जीवन की सच्चाई को स्वीकार नहीं करता, उल्टे उसे क़दम-क़दम पर चेतावनी देने या फिर नकारने पर उतारू होता है . . . जो एक मिथ्या विचारधारा काअंग है . . .  समूचे जीवन का तर्क-शास्त्र तो इसे नहीं कहा जा सकता। 

पाठक जगत का अक़्सर यह मत हो गया है कि जो भी कवि अथवा कहानीकार उत्तम/प्रथम पुरुष में कोई कहानी अथवा कविता लिखता है तो पाठक उसे कहानीकार/कवि विशेष के जीवन से जोड़कर या तो मज़ाक़ बनाते हैं या साहित्यिकता का लुत्फ़ उठाते हैं या फिर कहानीकार/कवि विशेष के जीवन में झाँकने का काम करते हैं। जो साहित्यिक मापदंडों के अनुसार न केवल अनुचित है अपितु साहित्य की गरिमा के प्रतिकूल भी है . . .  ख़ैर! मैं फिर एक कहानी प्रथम/उत्तम पुरुष बनकर लिख रहा हूँ . . . इस कहानी के पात्र भी मेरे अपने ही हैं। अब जिस पाठक को जो समझना है समझे, इसकी मुझे इसलिए चिंता नहीं क्योंकि भारतीय समाज के प्रत्येक घर की एक जैसी ही कहानी है। सवाल केवल स्वीकारने और न स्वीकारने का है। 

शुरूआत एक छोटी सी कहानी से . . . जब 25 दिन से घर बाहर गया बेटा वापस नहीं आया तो उसके बुज़ुर्ग माँ-बाप ने थाने में जाकर थानेदार से कहा कि हमारा 25 दिन से घर नहीं आया है। फोन भी नहीं उठा रहा है। माँ-बाप का दर्द छलक उठा। बोले—जिसे बोलना सिखाया, वही हमसे बात नहीं करता। हुज़ूर हमें उससे मिलवा दीजिए। “बचपन में जब वह माता-पिता की उँगली पकड़ कर चलता था, तब लगता था कि बेटा हमेशा हमारा साथ निभाएगा। आज वह इतनी दूर चला गया है कि अपने बुज़ुर्ग माता-पिता से बात तक नहीं करता।” ये अफ़सोस की बात ही तो है कि जिन्होंने उसे बोलना सिखाया, अगर वही बेटा फोन करने पर कॉल काट दे तो वाक़ई अभिभावक का दिल नहीं दुखेगा तो और क्या होगा। ख़ैर! बुज़ुर्ग दंपती ने पुलिस से बेटे का पता लगाने की माँग की। थाना प्रभारी का कहा कि युवक के नंबर को सर्विलांस पर लगाया गया है। जल्द ही बुज़ुर्ग माता-पिता को उससे मिलवाया जाएगा। 

माँ ने रोते हुए थाना प्रभारी को बताया कि उनका एक ही बेटा है, वो भी हमसे दूर हो गया। जब हम किसी अनजान नंबर से कॉल करवाते हैं तो वह उनसे हमारे सामने बात करता है, लेकिन हमारी आवाज़ सुनते ही वो फोन काट देता है। बुज़ुर्ग अवस्था में हर अभिभावाक को अपने बच्चों की ज़रूरत होती है। अगर वो साथ न हो तो चिंताएँ बढ़ जाती हैं। बुज़ुर्ग दंपती ने बताया कि उनका बेटा सबसे बात करता है, लेकिन हमारा फोन तक नहीं उठाता। उन्होंने बताया कि आख़िर वो ऐसा क्यों कर रहा है, इसका कोई कारण भी तो बताए . . .  

इस लघु कहानी को पढ़ने के बाद मुझे अब लगता है कि तमाम अभिभावकों की कमोबेश ऐसी ही कहानी है। 

यथोक्त के आलोक में, यहाँ हमें यह भी देखना होगा कि जिस नज़र से आज हम अपनी औलाद को देख रहे हैं, क्या कभी हमने उस नज़र से अपने जन्म-दाताओं को भी देखा है? मुझे तो कम-से-कम ऐसा नहीं लगता . . . मामला सम्पन्नता का है . . . बाप सम्पन्न है तो बेटे की मेहनत का परिणाम और . . . यदि बेटा सम्पन्न है तो उसकी अपनी मेहनत का परिणाम . . . मेरी पाठकों से यही आशा है कि मेरे यथोक्त कथन को सांसारिक व्यवहार के तौर पर परखा जाना चाहिए . . .  यह कहानी मेरी भी हो सकती है . . . किसी और की भी . . . आपकी की भी . . . किन्तु इसे सामाजिक और साहित्यिक दायरों की सीमाओं के अन्दर रह कर ही देखा जाना चाहिए . . . अभिव्यक्ति का माध्यम अलग ज़रूर हो सकता है। इस सत्य की पड़ताल के लिए मुझे भूतकाल में जाने की ज़रूरत महसूस होती नज़र आ रही है . . . 

शायद तब मैं छठी-सातवीं कक्षा में था, जब विलियम वर्ड्सवर्थ कि एक अंग्रेज़ी-कविता की ये पंक्ति पढ़ने को मिली थी–‘CHILD IS THE FATHER OF THE MEN’ विलियम वर्ड्सवर्थ का ऐसा लिखने के पीछे क्या अर्थ रहा होगा, मैं और आप ठीक से समझते होंगे, मैं ऐसा नहीं समझता। लेकिन इसे स्वीकारने में दिक़्क़त हो सकती है। ऐसा करने में सामाजिक बाध्यताएँ भी आड़े आती हैं। लोग सच्चाई को स्वीकारने से डरते हैं। सोचते हैं कि समाज क्या कहेगा। किन्तु तत्कालीन समय के हिसाब से विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता की इस पंक्ति का अर्थ समझने में किसी को भी कोई दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए। विलियम वर्ड्सवर्थ की ये पंक्ति सीधे-सीधे एक नवजात बच्चे के समूचे मानव-रूप में संवर्धन से जुड़ी रही होगी। शायद विलियम वर्ड्सवर्थ का इस पंक्ति को लिखने के पीछे बौद्धिकता का विकास रहा होगा, मैं ऐसा मानने में असमर्थ हूँ। मुझे तो आज भी यही लगता है कि विलियम वर्ड्सवर्थ की यह पंक्ति बौद्धिकता के विकास की बात नहीं करती अपितु एक बच्चे के समूचे मानव के रूप में संवर्धन से जुड़ी भावना रही होगी। अब जिसको जो समझना है समझे। 

प्रियवर! क्या आप इस सच से सहमत नहीं? आप इस सच से सहमत हो भी नहीं सकते क्योंकि आपने अपने आपको कभी किताबी ज्ञान के इतर देखने की कोशिश ही नहीं की। और न इसकी कोई ज़रूरत ही समझी अथवा ज़रूरत ही नहीं पड़ी। कारण कि आज के समाज में आर्थिक सम्पन्नता सबसे बड़ी सफलता मानी जाती है। फिर वह सफलता चाहे जैसे भी मिले। आपको वो पिता के ज़रिए मिली हो अथवा माँ के ज़रिए। 

शायद आपको ये मेरा आख़री पत्र है . . . कब क्या होने वाला है . . . किसे मालूम? मैं भी नहीं जानता . . . मैं जानता हूँ कि तुम्हें ही नहीं किसी को भी मेरी बातों पर यक़ीन नहीं होगा क्योंकि मैं सबकी नज़रों में नकारा हूँ। दरअसल हरेक अनाथ बेचारा ही होता है . . . बात-बात पर उसे नकारा जाता है . . . मैं भी उनमें से एक हूँ . . . एक वर्ष की उम्र में बाप का मर जाना और सातवीं कक्षा में आते-आते माँ का भी मर जाना . . . शायद ये मेरा सबसे बड़ा दुर्भाग्य था। मैं किन-किन हालातों से गुज़रता हुआ इस स्तर तक पहुँचा . . . ये किसी के लिए केवल एक साधारण बात या पहेली हो सकती है। और ये ऐसी पहेली भी है कि जिस पर अक़्सर कोई भी कभी विचार करने का साहस नहीं करता . . . वैसे ये कोई ख़ास बात भी नहीं है, दुनिया में ऐसे अनेक मामले होना एक आम बात है। वैसे भी खाते-पीते घर वाले को ऐसी घटनाओं से क्या लेना-देना . . .  भूखों की ओर उनका ध्यान देना शायद उनकी प्राथमिकता में दर्ज नहीं होता। 

यहाँ यह कहना अतिशयोक्त न होगा कि इस प्रकार का व्यवहार करना किसी व्यक्ति विशेष पर ही लागू नहीं होता अपितु समूचे समाज का व्यवहार लगभग एक जैसा ही होता है . . .  कोई इसे स्वीकार कर लेता है, कोई नहीं। किन्तु ज़्यादातर लोग इस सच्चाई को छुपाने का ही प्रयास करते है। 

ज़िन्दगी का स्वाद उम्र के हिसाब से बदलता रहता है। बचपन में माँ का प्यार बच्चों के लिए केवल प्यार होता है। जवानी में प्रेमिका अथवा पत्नी का शारीरिक प्यार केवल प्यार होता है। जवानी का यह समय ही सबसे ख़तरनाक होता है जिसमें पुरुष तमाम दूसरे दायित्वों को भुलाकर केवल और केवल पत्नी की जायज़ और नाजायज़ माँगों का शिकार होकर अपने आगे-पीछे के तमाम दायित्वों को भूल जाता है। उसे लगने लगता है कि केवल पत्नी ही उसका आख़िरी सहारा है। यही भूल उसे सारी ज़िन्दगी परेशान करती है। अब उसके अपने बच्चे भी जवान हो जाते हैं, वो भी अपनी मम्मी की भाषा बोलने लग जाते हैं। इस अवस्था में बेचारा पति . . . यानी . . .  अपने बच्चों का तथाकथित बाप चौराहे पर खड़ा होता है। उसे यह भी पता नहीं होता कि वो जीवित क्यों है और किसके लिए? क्या उनके लिए . . . जिन्होंने उसे केवल साध्य समझा था या फिर उनके लिए जो कभी उसके सुख और दुख में कभी ही शामिल ही नहीं हुए। कभी–कभी तो बच्चों के तथाकथित बाप को चढ़ी उम्र में ये लगने लगता है कि वो चाहे भी तो न मर सकता है और ज़िन्दा रहने को मजबूर रहता है, क्योंकि वो उसके अपने हाथ की बात नहीं। कहने का अर्थ ये है कि मनुष्य के सामने मरने और जीने की मजबूरी है और कुछ नहीं . . . यदि ऐसा न होता तो जन-मानस अपने हिसाब से जीने और मरने की तारीख़ ख़ुद तय करता और प्रकृति के तमाम कारणों को नकार देता। यहाँ यह कहना बेमानी नहीं होगा कि बुढ़ापे में जीने के लिए किसी को भी चुप रहने की सलाह दी जाती है . . . जो यूँ ही नहीं है . . .  सभी बुज़ुर्ग अनुभवी लोगों की यह समस्या रही होगी कि बुढ़ापे में कैसे जिया जाए या फिर कैसे अपने अनुभवों के बल पर अपने वज़न को बनाए रखने का उपक्रम करें . . . किन्तु ये सारे के सारे उपक्रम बेकार ही चले जाते हैं। कम से कम बेटों के मामले में तो शत-प्रतिशत बाप का नकार होता है। बेटियों की शादी हो जाती है . . .  अपने नए माँ-बाप उसे जो भी मिलते हैं . . . उसे कामगार की तरह सम्मान प्रदान करते हैं . . . उसे एक उपभोग की वस्तु समझते हैं। किन्तु ये सब मामलों में सही नहीं उतरता . . . बड़े घर की बेटियाँ छोटे घरों में पहलवान होती हैं तो छोटे घर की बेटियाँ बड़े घरों में कामगार और बिस्तर होकर रह जाती हैं। किन्तु आजकल बहुत मौक़ों पर यह सोच भी टूटती नज़र आती है। 

 . . . किन्तु इस सच्चाई को लोग क़तई भी स्वीकार इसलिए नहीं करेंगे कि यहाँ सदियों-सदियों से पुरुष सत्ता का वर्चस्व रहा है . . . और महिलाएँ भी इसी वर्चस्व के चलते पुरुष के सामने अपने आप को बौना मानने की अभ्यस्त हो गई हैं। कितु व्याप्क रूप से मुझे ऐसा नहीं लगता। आज की महिला “स्त्री सशक्तिकरण” के चलते हर समय पुरुष पर सवार होने को तत्पर रहती है। संयुक्त परिवारों का बिखरना इस बात का प्रमाण है।

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