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शादी का समकालीन समाज-शास्त्र

नज़रिया—
 

शादी की कहानी कोई नई थोड़ी है . . . ना ही कोई नया रास्ता है . . . चाहे-अनचाहे सभी इस रास्ते से गुज़रते हैं . . .। किन्तु कमाल का सच ये है कि इस रास्ते में आई बाधाओं के क़िस्से चुटकलों के ज़रिए तो सुनने/पढ़ने को ख़ूब मिलते हैं किन्तु इस सच को कोई भी पति अथवा पत्नी व्यक्तिश: स्वीकार नहीं करता। क्यों . . .? लोक-लज्जा का डर, पुरुष को पुरुषत्व का डर, पत्नी को स्त्रीत्व का डर . . . डर दोनों के दिमाग़ में ही बना रहता है . . . इसलिए पति व पत्नी दोनों आपस में तो तमाम ज़िन्दगी झगड़ते रहते हैं किन्तु इस सच को सार्वजनिक करने से हमेशा कतराते हैं . . . यही भावना कष्टकारी है . . .। महिला सशक्तिकरण का नाटक मुझे तो बड़ा ही बचकाना लगता है . . .। मुझे तो महिला के मुक़ाबले कोई और सशक्त नहीं लगता . . . महिला अपनी पर उतर आए तो क्या नहीं कर सकती? . . . बेटा-बेटी के अलावा पति की क्या मजाल कि उसके सामने कोई भी बोल पाए . . . 

दोस्तो एक समय था कि जब शादी के मामले में लड़के और लड़की की इसके अलावा कोई भूमिका नहीं होती कि वो दोनों आँख और नाक ही नहीं अपितु साँस बन्द करके माँ-बाप की इच्छा के अनुसार शादी के लिए तैयार हो जाएँ। इसके पीछे समाज का अशिक्षित होना भी माना जा सकता है। किन्तु जैसे समाज में शिक्षा का व्यापक प्रचार और प्रसार हुआ तो नूतन समाज के विचार पुरातन विचारों से टकराने लगे, अब शादी के मामले में लड़के और लड़की की इच्छाएँ भी पुरातन संस्कृति के आड़े आने लगीं। फलतः पिछले कुछ दशकों से यह देखने को मिला है कि शादी के परम्परागत पहलुओं के इतर शादी से पहले लड़के और लड़की को देखने का प्रचलन ज़ोरों पर है। पहले यह उपक्रम केवल शहरों-नगरों तक ही सीमित था किन्तु आजकल तो यह उपक्रम दूरस्थ गाँवों तक पहुँच गया है। झुग्गी–झोंपड़ीयाँ तक इस प्रथा की ज़द में आ गई हैं। इसमे कोई बुराई भी नहीं है। यहाँ एक सवाल का उठना बड़ा ही जायज़ लगता है कि पंद्रह-बीस मिनट की मुलाक़ात में लड़का, लड़की और लड़की, लड़के के विषय में क्या और कितना जान पाते होंगे। सिवाय इसके कि एक दूसरा, एक दूसरे की चमड़ी भर को ही देख-भर ले। दोनों एक दूसरे की नक़ली हँसी को किसी न किसी हिचकिचाहट के साथ दबे मन से स्वीकार कर लें। इस सबका कोई साक्षी तो होता नहीं है। अगर हो भी तो उनका इस प्रक्रिया में कुछ भी कहने का कोई अधिकार यदि होता है वह केवल लड़के और लड़की को केवल शादी के लिए तैयार करना होता है। इसके अलावा और कुछ नहीं होता। 

कहना अतिशयोक्ति न होगा कि दो अनजान चेहरों के बीच पहली बैठक में बात शुरू करने में कुछ न कुछ तो हिचकिचाहट होती ही है। अमूनन देखा गया है कि शादी के बन्धन में बन्धने जा रहे जोड़े को प्राय: दूसरी मुलाक़ात का मौक़ा दिया ही नहीं जाता। धार्मिक बाधाएँ इस सबके सामने खड़ी कर दी जाती हैं। हमको इस धार्मिक उपक्रम ने इस हद तक कमज़ोर और क़ायल बना दिया है कि हम सारा समय लड़के और लड़की की कुंडलियाँ मिलाने में गवाँ देते हैं। फिर ये कैसे मान लिया जाए कि शादी की पुरातन रीति आज की रीति से भिन्न है? हाँ! इतना अंतर अवश्य है कि पहले समय में लड़के और लड़की का मिलान करने में दोनों ही पक्षों के माता-पिता की सीधी जवाबदारी होती थी और आजकज इस जवाबदारी का एक बड़ा हिस्सा लड़के और लड़की पर डाल दिया जाता है, नूतन संस्कृति के चलते माँ-बाप की ये मजबूरी भी है। वह इसलिए कि आजकल के पढ़े-लिखे बच्चों के माता-पिता इसलिए असहाय हैं कि वो बच्चों की स्वीकृति के बिना ‘हाँ’ या ‘ना’ कहने की स्थिति में नहीं होते। दूसरे, बच्चों की शिक्षा का स्तर और कामयाबी के चलते माँ-बाप की मर्ज़ी के कोई मायने नहीं रह गए हैं। और हों भी क्यों, लड़का और लड़की को कामयाब होने के बाद भी अपनी इच्छानुसार जीने की स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए कि नहीं? 

व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो यह क़तई सच है कि प्रथम दृष्टि में, आजकल लड़के और लड़की को शादी से पूर्व मिलने का मौक़ा तो अवश्य दिया जाता है किन्तु उसके बाद उन्हें फोन पर भी बातचीत करने का मौक़ा न दिए जाने तक की क़वायद होती है। यह बात अलग है कि आज के तकनीकी युग में लड़का–लड़की चोरी-छिपे फोन, वाटसेप, इंटरनेट या फिर फ़ेसबुक के ज़रिए बराबर बात करते रहते हैं। किन्तु फोन, वाटसेप, इंटरनेट या फिर फ़ेसबुक के ज़रिए बात करने का वो अर्थ तो नहीं हो सकता जो साक्षात्‌ बात करने में होता है। क्योंकि फोन, वाटसेप, इंटरनेट या फिर फ़ेसबुक के ज़रिए बात करने में बॉडी-लेंगुएज का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता जबकि इसके उलट साक्षात्‌ मुलाक़ात में बॉडी-लेंगुएज बहुत कुछ कह जाती है। किन्तु हम बच्चों को शादी से पूर्व एक से ज़्यादा बार मिलने का मौक़ा ही नहीं देते। और तो और बच्चों के माता-पिता ही दोबारा ऐसा कोई मौक़ा लेने का प्रयास करते हैं। बस! घड़ी-भर का मिलना पूरे जीवन का बन्धन बना दिया जाता है। यह कहाँ तक उचित है? सच तो ये है कि जीवन का यह एक ऐसा अकेला सौदा है जो एक-दो दिन की मुलाक़ात में ही तय मान लिया जाता है जबकि एक टीवी या फ़्रिज जैसी दैनिक उपयोग की चीज़ें ख़रीदने की क़वायद में सप्ताह, हफ़्ता ही नहीं, यहाँ तक की कई-कई महीने तक लग जाते हैं . . .। कौन सी कम्पनी का लें? इसकी क्या और कितने दिनों की गारंटी है? . . . इसका लुक औरों के मुक़ाबले कैसा है? . . . न जाने क्या-क्या . . . न जाने कितने मित्रों से इसकी जानकारी हासिल की जाती है . . . इतना ही नहीं, सब्ज़ी तक दस दुकानों की ख़ाक छानने के बाद भाव-मोल करने के बाद ही ख़रीदी जाती है . . .। किन्तु लड़का-लड़की के बीच जीवन-भर का रिश्ता बनाने में जान-पहचान के बजाय बच्चों की शिक्षा के स्तर और उनकी आमदनी के विषय में ही ज़्यादा सोचा जाता है . . .  और कुछ नहीं। लगता है कि यही प्रक्रिया आजकल के रिश्तों में टूटन का कारण ख़ास कारण है . . . बच्चों की कमाई इसका कारण है, एक दूसरा एक दूसरे की कमाई पर हक़ जताने की ज़िद में हमेशा उलझे रहते हैं . . .। लड़का और लड़की के घर वाले भी इस क़वायद में कम भूमिका नहीं निभाते . . .। लड़का और लड़के के घर वाले लड़की की कमाई को हर-हाल हथियाने की कोशिश में लग रहते हैं, और लड़की अपनी कमाई को लड़के के नाम क्यूँ करदे, इसी उलझन में फँसी रहती है . . . पड़े भी क्यूँ न? जो लड़की अपने माँ-बाप के घर को छोड़कर लड़के के साथ उसके घर में रहने के लिए बाध्य होती है तो क्या वह अपनी कमाई से ससुराल वालों को पालने के लिए बाध्य है? हाँ! मान-सम्मान अता करने की बात अलग है। इस जद्दो-जहद के चलते लड़का और लड़की के बीच मतभेद हो न हो, घर वाले दोनों के बीच में दीवार खड़ा करने में अहम भूमिका निभाते हैं। केवल माँ-बाप ही लड़का और लड़की के बीच की दीवार नहीं बनते, अपितु अनेक बार लड़का और लड़की भी अपने बीच दीवार खड़ा करने में पीछे नहीं रहते। इसी कश-म-कश के चलते, यह देखा गया है कि शादी हो जाने के बाद पति-पत्नी एक दूसरे को निभाने, या यूँ कहूँ कि पति-पत्नी के सामने इस रिश्ते को ढोने के अलावा कोई और रास्ता शेष नहीं रह जाता। 

जहाँ तक कुंडलियों के मिलान का सवाल है, यह एक ढोंग है जो सदियों से होता आ रहा है और पता नहीं भविष्य इस परिपाटी को कब तक ढोने को बाध्य होगा। यह इसलिए कि क्या ये कुंडली-मिलान रिश्तों के अमरत्व की कोई गारंटी देता है? क्या कुंडली-मिलान वाले जोड़ों के बीच कभी कोई दरार नहीं पड़ती? क्या उनका जीवन-भर साथ बना रहता है? क्या उनके जीवन में कोई बाधा नहीं आती? जैसी कुंडली मिलाते समय आशा की जाती है। नहीं, क़तई नहीं। मुझे लगता है कि इसके इतर यह अच्छा होगा कि लड़के और लड़की की चिकित्सीय कुंडली का मिलान भी किया जाय। मेरी इस बात के महत्त्व को खुशवंत सिंह की पुस्तक ‘दिल्ली’ में उद्धृत शेख़ सादी के इस बयान से जाना जा सकता है कि यदि औरत बिस्तर से बेमज़ा उठेगी तो मर्द बिना किसी वजह के ही मर्द से बार-बार झगड़ेगी-यथा स्त्री बिस्तर से ग़र उट्ठेगी बेमज़ा, वो मर्द से झगड़ेगी ही रह-रहके बेवजह। किन्तु ये एक ऐसा सत्य है जिसे कोई भी पुरुष अथवा औरत मानने वाली नहीं है . . . किन्तु ऐसा होता है। रिश्तों की खटास में यह भी एक बड़ा कारण है। इस कारण के बाद आता है . . . दौलत का सवाल . . .। शृंगारिक संसाधनों की उपलब्धता . . . गहनों की अधिकाधिक रमक . . . आदि . . . आदि। क्या इस ओर कुंडलियाँ मिलाते समय ध्यान दिया जाता है? होता ये है कि इन तमाम कारणों के चलते रिश्तों में खटास आ जाने के कारण या तो बिछोह हो जाता है, या फिर जीवन-भर दम्पति को एक दूसरे को हारे-मन ढोते रहने को बाध्य होना पड़ता है। पति-पत्नी की एक-दूसरे से कमर भिड़ी रहती है . . . और इसी कश-म-कश में जीवन तमाम हो जाता है। हाँ! ये बात अलग है कि समाज का एक बड़ा वर्ग, ख़ासकर इस व्यवस्था से पीड़ित पति/पत्नी सरेआम इस बात को स्वीकार करने से कतराते हैं . . . क्योंकि उनके सामने समाज में सिर उठाकर जीने का सवाल हमेशा बना रहता है। चेहरे पर चेहरा लगाए रहते हैं . . .। कोई और पहल करे . . . तो वो भी करे . . . यह मौक़ा कभी आता ही नहीं . . . क्योंकि जन-सामान्य उस मुखौटे को उतारने का साहस कर ही नहीं पाते, जो भिरूता हमें विरासत में मिली है। इसी इंतज़ार में अपने मन की बात को मन में दबाए रहते हैं . . . क्या नहीं? 

नवभारत टाइम्स–06.02.2015 के ज़रिए एक ताज़ा सर्वे यह तथ्य सामने आया है कि ज़्यादातर दम्पत्तियों के बीच शादी वाला प्यार शादी होने के पहले दो सालों में ही फुर्र हो जाता है . . .। कुछ का तीन सालों बाद . . . और जिनका बचा रहता है . . . वो किसी न किसी प्रकार की सामाजिक मजबूरी ही होती है . . .। ये पहले कभी होता होगा कि पति-पत्नी बुढ़ापे में एक दूसरे के मददगार बने रहते होंगे . . . आज समय इतना बदल गया है कि बुढ़ापा आने से पहले ही सारा खेल बिगड़ जाता है . . .। पहला बच्चा पैदा होने के साथ ही पत्नी का प्रेम पति के प्रति इतना कम हो जाता है कि पति उसके लिए उधार की चीज़ बन जाता है . . .। ऐसा उधार कि जिसे वो उतार तो नहीं सकती . . . बस! ढोने भर के लिए बाध्य होती है। पति की हालत भी कमोवेश यही होती है। यहाँ भी लोक-लाज ही ऐसे रिश्तों को निभाने के लिए आड़े आती है . . . इस विछोह के पीछे एक और जो कारण होता है . . . वो है–लगभग 80/90 प्रतिशत पति अपनी पत्नी को ही अपनी जायज़ या नाजायज़ सम्पत्ति का मालिक बनाने का काम करते हैं . . . कारण चाहे जो भी हों . . . और जब और जैसे ही पत्नी को इस सच का पता चल जाता है, वैसे ही वो पति पर सवार हो जाती है और उसकी उपेक्षा करना शुरू कर देती है . . . उसे अक़्ल जब आती है, तब उसकी अपनी औलाद ख़ासकर बेटा/बेटे अपना असली रूप दिखाने की हालत में आ जाते हैं . . . यानी उसके सिर पर एक और चोटी उग आती है . . . माने उनकी शादी हो जाती है . . .। अब घर में बहू का दख़ल भी शामिल हो जाता है . . .। बेटियाँ तो अपने घर यानी ससुराल चले जाने के बाद भी अपने माँ-बाप के प्रति किसी न किसी प्रकार अपने अपनत्व का निर्वाह करती ही रहती हैं . . . बेटों के बारे में क्या कहा जाए . . . आप सब इस यर्थाथ से परिचित ही होंगें . . .। फिर भी पता नहीं . . . प्रत्येक दम्पत्ति के मन में बेटा पैदा करने की जिज्ञासा ज़्यादा ही बनी रहती है . . . क्यों? 

एक और सार्वभौम सत्य है कि 70 से 80 प्रतिशत औरतों के पति उनसे पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। फलतः पत्नियों को ऐसा पीड़ा भरा असहाय जीवन जीना पड़ता है जिसकी कल्पना करना भी दूभर होता है। एक उपेक्षित जीवन जीना . . . और वहशी आँखों की किरकिरी बने रहना . . . उसकी नियति हो जाती है। कुछ लोग कह सकते हैं कि विधवा की देखभाल के लिए क्या उसके बच्चे नहीं होते। इस सवाल का उत्तर वो ज़िन्दा लोग अपने गिरेबान में झाँककर खोजें कि उनके स्वयं के बच्चे उनका कितना ध्यान रखते हैं। 

दान-दहेज की बात के इतर इस ओर कभी किसी का ध्यान शायद ही गया हो। लगता तो ये है कि इसके कारणों को खोजने का प्रयत्न भी शायद नहीं किया गया जो अत्यंत ही शोचनीय विषय है। मुझे तो लगता है कि समाज में ये जो प्रथा है कि लड़का उम्र के लिहाज़ से लड़की से प्रत्येक हालत में कम से कम पाँच वर्ष बड़ा होना ही चाहिए, इस प्रकार की सारी विपदाओं के लिए ज़िम्मेदार है। शायद आप भी इस मत से सहमत होंगे कि उम्र के इस अंतर को मिटाने की ख़ासी आवश्यकता है। लड़का-लड़की की उम्र यदि बराबर भी है तो इसमें हानि क्या है? या फिर शादी के एवज़ पारस्परिक रिश्तों को क्यूँ न स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए . . . विछोह तो आगे . . . पीछे होना तय है ही . . . भला घुट-घुटकर जीवन यापन करने की बाध्यता शादी ही क्यों हो? 

इस सबसे इतर, नवभारत टाइम्स दिनांक 23.05.2015 के माध्यम से अनीता मिश्रा कहती हैं कि शादी सिर्फ़ आर्थिक और शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करने भारत का माध्यम नहीं है। लड़कियों को ऐसे जीवन साथी की तलाश रहती है जो उन्हें समझे। उनकी भावनात्मक ज़रूरतें भी उनके साथी के महत्त्वपूर्ण हों। वो फ़िल्म ‘पीकू’ में एक संवाद का हवाला देती हैं . . . “शादी बिना मक़सद के नहीं होनी चाहिए।” फ़िल्म की नायिका का पिता भी पारम्परिक पिताओं से हटकर है। वह कहता है, “मेरी बेटी इकनामिकली, इमोशनली और सेक्सुअली इंडिपेंडेंट है, उसे शादी करने की क्या ज़रूरत?” मैं समझता हूँ कि यह तर्क अपने आप में ही इमोशनल है। फिर भी यह आम जन का ध्यान तो आकर्षित करता ही है। 

अनीता जी आगे लिखती हैं कि यहाँ एक सवाल यह भी है कि विवाह संस्था को नकारने का क़दम स्त्रियाँ ही क्यों उठाना चाहती है? शायद इसके लिए हमारा पितृसत्तात्मक समाज दोषी है। वर्तमान ढाँचे में विवाह के बाद स्त्री की हैसियत एक शोषित की हो जाती है। आत्मनिर्भर स्त्री के भी सारे निर्णय उसका पेशंट या उसके परिवार वाले ही करते हैं। शादी होने के बाद उसका पति मालिक की तरह ही व्यवहार करता है। ऐसे में स्त्री के लिए दफ़्तर की ज़िन्दगी और घरेलू ज़िन्दगी में तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है। कहा जा सकता है कि ज़्यादातर स्त्रियों को दफ़्तर में काम करने के बाद भी घर में एक पारम्परिक स्त्री की तरह ख़ुद को साबित करना होता है। किसी भी स्त्री को जब सफलता मिलती है तो यह भी जोड़ दिया जाता है कि उसने करियर के साथ सारे पारवारिक दायित्व कितनी ख़ूबी से निभाए। जबकि पुरुषों की सफलता में सिर्फ़ उनकी उपलब्धियाँ गिनी जाती है। कामकाजी लड़कियों के लिए शादी के बाद इतनी सारी चीज़ों के बीच तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है। नतीजतन विवाहेतर संबंधों में खटास आ जाती है . . .। यहाँ तक की तलाक़ की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। ऐसी मिसालें देखकर आज कई लड़कियाँ शादी नहीं करने का निर्णय ले रही हैं। वे अपनी आज़ादी को पूरी तरह जीना चाहती हैं और अपने व्यक्तित्व और सम्पत्ति की मालिक ख़ुद होना चाहती हैं। 

यहाँ यह सवाल उठना भी लाज़िमी है कि शादी समाज की एक ज़रूरी व्यवस्था रही है किन्तु आज़ादी चाहने वाली लड़कियाँ शादी को एक बन्धन की तरह देखती हैं। फिर मानव समाज की दृष्टि से एक सामाजिक व्यवस्था के तौर पर विवाह का विकल्प क्या है? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि बदलते परिवेश में स्त्री शादी का विकल्प ख़ुद खोजे? ज़ाहिर तौर पर अब तक पुरुषों की आर्थिक स्वनिर्भरता और सक्षमता ने केवल उन्हें ही निर्णय लेने का अधिकार दे रखा था। अब अगर महिलाएँ भी इसी हैसियत में पहुँचने के बाद अपनी ज़िन्दगी की दिशा तय करने वाला फ़ैसला ख़ुद लेने लगी हैं तो इसमें ग़लत क्या है? फिर क्यों न आत्मनिर्भर, जागरूक और सक्षम महिला को शादी करने, न करने का फ़ैसला ख़ुद लेने दिया जाए? 

उपर्युक्त के आलोक में महिलाओं और पुरुषों के बीच बराबरी के प्रश्न का हल एक लम्बी प्रक्रिया से होकर गुज़रेगा। आनन-फ़ानन में कुछ भी नहीं होने वाला है। किन्तु इस प्रकार की बहसों का जन्म लेना सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को गति तो प्रदान करता ही है। 

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