एक शर्त भी जीत न पाया
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. हरि जोशी4 Feb 2019
मैं शर्त लगाने का पक्षधर कभी नहीं रहा अतः मैंने कभी शर्तें नहीं लगायीं किन्तु कुसमय मेरा परिचय एक बीमा एजेंट से हो गया। उसने मुझे अपनी शातिर बातों के जाल में ऐसा फँसाया कि मैं शर्तें लगाने पर मजबूर हो गया।
अब मैं उसे प्रतिमाह कुछ राशि का चेक दे देता हूँ और वह उससे ख़ुश होकर जुआ खेलता रहता है। मैं यही समझ नहीं पा रहा हूँ कि उसने मेरा बीमा किया या मुझे बीमार किया। पहले उसने मुझे डराया कि मेरे घर में चोरी हो सकती है। इसीलिए सारे सामान का बीमा कर लो। मैं उसी बात से आशंकित हो गया, संभव है रात के अँधेरे में किसी दिन सेंधमारी करने वह ख़ुद आ धमके या किसी को भेज दे?
एक दिन कहा मेरे घर में आग लग सकती है। घर सुरक्षित रहे इसके लिए बीमा करा लो। मुझे शंका हुई कि किसी दिन पेट्रोल में कपड़ा डुबाकर तीली सुलगाकर मेरे घर में स्वयं ही न फेंक दे?
मैं बहुत नियमित रहकर अपना जीवन जीता हूँ पर वह उस दिन कह रहा था - क्या पता आप कल बीमार पड़ जायें? - स्वास्थ्य का बीमा करा लो। इसीलिए कई दिन तक मैंने उसकी चाय भी नहीं पी। चाय पिलाकर वह अपनी शंका को साकार कर सकता था। कह सकता था देखो आज ही बीमार हो गया। एक दिन कहने लगा मेरी कार का एक्सीडेंट हो सकता है। बीमा करा लो। मैंने पूछा - क्या बीमा कराने से एक्सीडेंट नहीं होगा? अगले दिन से मैं किसी और से बचता न बचता उससे बचने लगा।
एक दिन उसने अपने अधीनस्थ को भेज दिया। अधीनस्थ तो यहाँ तक कहने लगा मेरी मौत हो सकती है। बीमा करा लेना ठीक रहेगा। याने मैं कई साल मासिक क़िस्त भरता रहूँ जिसका मज़ा एजेंट उठाता रहे? और मर जाऊँ तो बाद में मिली धनराशि का आनंद कोई और उठाये?
अब जब मैं सत्तर साल की उम्र तक सुरक्षित हूँ तो वही बीमा कंपनी का एजेंट मेरे बच्चों ही नहीं नाती पोतों के बारे में चिन्तित करने लगा। बच्चों के स्वास्थ्य से निश्चिन्त रहना हो तो मासिक किस्त भरते रहो।
देश में रहकर इस तरह जुआ खेलते-खेलते प्रतिमाह अपनी जेब खाली करता रहता हूँ। जब कभी विदेश जाता हूँ तो वही प्राणी आशंका से ग्रस्त कर देता है कि मुझे बाहर कुछ भी कभी हो सकता है और इस तरह भयभीत कर वह एकमुश्त बड़ी राशि मुझसे ले लेता है। मैं हर बार पैसे लगाता हूँ और वही हर बार जीतता जाता है। लाखों रुपये फूँक चुका हूँ पर आज तक एक बार भी नहीं जीता। एजेंट्स का लक्ष्य एक ही होता है कि वह और उसकी कंपनी शर्तें जीतती रहे। सामने वाला किसी अनहोनी से डरकर बस पैसा देकर हारता रहे।
एक बार मुझे आभास होने लगा था कि अब मैं शर्त जीत सकता हूँ। हुआ यह कि एक वर्ष पूर्व श्रीमतीजी के स्वास्थ्य का बीमा कराया था। उनका आँखों में मोतियबिंद का ऑपरेशन कराना पड़ा। मैंने सोचा इब तक लाखों रुपये बीमा में दे चुका हूँ। यह खर्च तो मात्र कुछ हज़ार का है, शायद बीमा कंपनी दे देगी?
मैंने एजेंट को तदाशय की जानकारी दी और घर बुलाया। वह नहीं आया। जो बीमा एजेंट स्वयं ही दिन में दो चक्कर लगाता था, शर्त के हारने के डर से नहीं आया। जब जब टेलीफोन किया, हमेशा दूरभाष, बंद मिला।
बड़े-बड़े सट्टेबाज़ भी एकाध बार तो हारने के लिए तैयार रहते हैं, पर वह एक बार भी तैयार नहीं हुआ। हारकर मैंने उसे एक सुमधुर पत्र लिखा कि आपको अंदरूनी ख़ुशी तो हुई होगी कि पहली बार मैं शर्त जीत गया हूँ। पहली बार आपकी अपेक्षा पूरी हुई है। आशा है शल्य चिकित्सा का व्यय मुझे मिल जाएगा। इस बार उसका उत्तर ही नहीं आया।
जब बार-बार टेलीफोन और पत्र लिखे तो कई दिन बाद कुछ लाल-पीले प्रपत्रों सहित उसका उत्तर आया। प्रपत्रों में छुपे हुए दसियों प्रश्न थे। जैसे ऑपरेशन कराने का निर्णय मेरा था या डॉक्टर का? क्या ऑपरेशन कराना बहुत ज़रूरी था? एक प्रश्न यह भी था कि मैं प्रमाण दूँ कि आपरेशन आँख का ही हुआ है। फिर दायीं आँख का हुआ या बायीं आँख का? कितने दिन रोगी अस्पताल में भर्ती रहा। डॉक्टरों ने कितनी फीस ली, कौन-कौन सी दवाइयाँ लेनी पड़ीं और दवाइयों पर कितना खर्च आया? अस्पताल में रहने पर कितना व्यय हुआ आदि आदि।
मैंने सारे प्रपत्र पूरे होशो-हवास से भरे, माँगे गए सारे प्रमाण पत्र संलग्न किये, और रजिस्टर्ड डाक से एजेंट को भेज दिये। एक दो महीने तक कोई उत्तर नहीं आया। जब मैंने झुँझलाकर शिकायत की तो उत्तर मिला वे सभी कागज़ मिल चुके हैं और आगामी कार्यवाही के लिए मुख्यालय भेज दिये गए हैं।
मैंने एजेंट से कहा मासिक राशि के चेक तो मैं आपको देता रहा अब पैसा किससे माँगूँ?
उसने उत्तर दिया मैं तो पैसे एकत्र करने वाला नौकर हूँ, पैसे देना न देना कंपनी का काम है।
क्या तुम पागल हो गए हो, शर्त तो मैंने जीती है, मुझे पैसे आप दो।
वह बोला - मैं नहीं कंपनी वाले पागल हैं।
कौन कंपनी वाले?
मुँबई में जो मुख्यालय है उसकी कंपनी वाले।
मैं उनकी टाँग तोड़ने हथौड़ा लिए उनके ऑफिस पहुँचा।
ऑफिस के लोग बोले जो कुछ निर्णय लेना है इस कम्प्यूटर को लेना है। और यह कोई निर्णय नहीं ले रहा है।
अब क्या मैं कम्प्यूटर की टाँग तोड़ता? यदि तोड़ भी देता तो मुझे क्या मिल जाता?
इस तरह मैं एक भी शर्त जीत नहीं पाया।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
60 साल का नौजवान
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | समीक्षा तैलंगरामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…
(ब)जट : यमला पगला दीवाना
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | अमित शर्माप्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
यात्रा-संस्मरण
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- अराजकता फैलाते हनुमानजी
- एक शर्त भी जीत न पाया
- कार्यालयों की गति
- छोटे बच्चे - भारी बस्ते
- निन्दा-स्तुति का मज़ा, भगवतभक्ति में कहाँ
- बजट का हलवा
- भारत में यौन क्रांति का सूत्रपात
- रंग बदलती टोपियाँ
- लेखक के परिचय का सवाल
- वे वोट क्यों नहीं देते?
- सिर पर उनकी, हमारी नज़र, हा-लातों पर
- हमारी पार्टी ही देश को बचायेगी
- होली और राजनीति
लघुकथा
कविता-मुक्तक
कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं