स्वागत के अलावा और कोई विकल्प नहीं
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. हरि जोशी21 Feb 2019
द्वार खोलने से पूर्व मैं अपने छोटे से कांच में से या बगल की खिड़की से देख लेता हूँ, "आगंतुक कौन है?" फिर आवश्यकतानुसार द्वार खोलकर उसका स्वागत करता हूँ।
उस दिन वृद्धावस्था ने अचानक दरवाज़ा खटखटाया। मैंने कांच से देखकर उससे पूछा, "आने की इतनी जल्दी क्या थी? क्या कुछ दिन और रुक नहीं सकती थी?"
उसने उत्तर दिया, "आज भी जब तक तुम तपस्या में सृजन साधना या ग्रंथों में डूबे रहते हो, मैं तुम्हें छेड़ती हूँ? तुम्हारे निष्क्रिय होते ही मैं सामने आ खड़ी होती हूँ। तुम स्वागत करो या न करो, खाली होते ही मैं आ डटती हूँ अब अंत समय तक साथ निभाऊँगी। या तो किसी तपस्या में डूबो या मुझे देख-देखकर ऊबो।"
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