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रंग बदलती टोपियाँ

कोई माने या न माने दुनिया भर में टोपियों का वर्चस्व सदा से रहा है। हमेशा रहेगा भी। वे दुनिया के मंच पर रूप और रंग बदल बदलकर आती हैं। पुरुष के रूप में सवार होकर होती हैं तो टोप बन जाती हैं, महिला के स्वरूप में सिर पर बैठती हैं तो टोपी कहलाती हैं।

भारतवर्ष में यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः का सिद्धांत सर्वापरि माना जाता है, स्पष्ट है नारी ही पूजनीय होती है, इसीलिए यहाँ की धरती पर टोप को नहीं टोपी को वंदनीय माना गया है। दिल्ली जीतने के लिए अधिक से अधिक मतदाताओं को टोपी पहनाने की क्षमता होनी चाहिए। जिन्हें टोपी पहनाने की कला आती है वे ही टोप या टोपी पहिनकर प्रमुख कुर्सियों पर आधिपत्य जमा सकते हैं। टोपी किसी भी रंग की हो दिल्ली जीतना उसका प्रथम लक्ष्य होता है। एक ही दल की सरकार होगी तो उसी रंग की टोपी यत्र तत्र सर्वत्र दिखायी देगी। मिली जुली सरकार बनाने की स्थिति में निष्णात खिलाड़ियों का काम, इसकी टोपी उसके सिर और उसकी टोपी इसके सिर करने का होता है। ऐसे लोगों के लिए दिल्ली कभी दूर नहीं रही।

प्रारंभ में टोपियों के रंग रूप, दिल्ली से ही तय किये जाते हैं फिर कोशिश होती है कि धीरे-धीरे सारे देश के लोगों को वही टोपी पहना दी जाए? उन्हीं टोपियों से जनता जनार्दन पट जाए? अनेक रंगों की टोपियाँ अधिरोपित हुईं या तिरोहित हुई, किन्तु जो कुछ भी हुआ दिल्ली से ही हुआ। जब देश स्वाधीन हुआ था तब महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, आदि बेदाग याने सफेद टोपी ही पहिनते थे। बाद में धीरे-धीरे सफेदी समाप्त होने लगी, लोग रंगीनियत की ओर बढ़ने लगे। फिर तो कौन सा रंग छूटा? लाल, नीली, काली, पीली, सब एक ही जाजम पर, एक ही छत के नीचे दिखायी देने लगीं। पहले की गतिविधियों में धवलता थी अब काली पीली होने लगीं। जब चहुं ओर काला पीला अधिक होने लगा तो लोगों को रंगीनियत से चिढ़ होने लगी और फिर से ध्यान साफ स्वच्छ धवल पर जाने लगा।

देखिये दिल्ली में घूम फिर कर सफेद टोपी फिर मैदान मार ले गई। समय के साथ टोपी का स्वरूप बदलता रहा है, दिल्ली में भी बदल गया। अब वह आप की हो गई। उस पर आम आदमी लिख दिया याने वह आम आदमी की हो गई। ध्यान दीजिए टोपी सफेद है किन्तु आम आदमी काले से लिखा गया है। वैसे रात के अँधेरे में पीला अधिक चमकता है, इसलिए सफेद पर पीले से लिखना चाहिए था। भले ही आज काले से लिखा गया हो कल पीले से लिखा जायेगा कुल मिलाकर यह कि काला पीला किये बिना आगे बढ़ना मुश्किल होगा। एक धर्मेंन्द्र ने तो शुरू कर ही दिया है। सच्चाई तो यह है कि वह आप की तो क्या, कभी किसी के बाप की नहीं रही।

एक अमरीकी कहावत के अनुसार अधिकांश राजनीतिज्ञ डायपर्स ही होते हैं जिन्हें बार-बार और उन्हीं कारणों से बदला जाना चाहिए। यह भी कि जिस किसी को मतदान द्वारा चुना जाता है तो वह भविष्य का दागी नेता ही होता है।

रानी एलिजाबेथ टोप पहिनती हैं। अमेरिका इंग्लैंड के बाज़ारों में घूम आइये कई महिलाएँ टोप पहिने हुए मिल जाएँगी। दुनिया भर में ताज हों या मुकुट, टोपियाँ हों या टोप सिर पर गर्मी ला ही देते हैं। जबकि कुछ महानुभावों का काम सामनेवाले की गर्मी उतारने का ही होता है। किसी की भी टोपी उछालने में वे संकोच नहीं करते।

यह बात अवश्य है कि कोई भी आदमी सबसे बड़ा नहीं होता, कहीं न कहीं बीच का ही होता है। यदि सामने वाला भारी हो और वह जूता फेंके ही नहीं मात्र दिखा दे, इतने से ही टोपी का रंग उड़ जाता है। कई लोगों का लक्ष्य टोपी को निशाना बनाना नहीं होता, मात्र जूता फेंक देना होता है, ताकि उड़े, उछले, गिरे, जोर से पकड़ी ही जाए?किसी तरह टोपी बदरंग तो हो?

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