होली और राजनीति
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. हरि जोशी23 Feb 2019
राजनीति के लिए आज सबसे उपयुक्त कोई पर्व है तो वह है होली। दिल लगें न लगें, गले लगाते रहिये एक दिन गले मिलो, बाक़ी साल भर गला काट गतिविधि में संलग्न रहो। साल भर जिसे गालियाँ सुनायीं, होली के दिन उसपर थोड़ा रंग डाल दीजिये। शत्रुता थोड़ी मित्रता में तो बदलेगी? दुश्मनी और दोस्ती एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कुछ लोग आज भी घूम-घूम कर आग लगा देते हैं! एक ओर होली सर्वाधिक रंगीली है, तो दूसरी ओर गाली-गलौज, टाँग खिंचाई और, जूतम-पैजार से भी भरी-पूरी होती है। राजनीति तो अत्यधिक सांस्कृतिक गतिविधि में आकंठ डूबी है। होली और राजनीति में यही साम्य है। बस अंतर इतना है, होली में थोड़ी सी आग लगी और रस्म पूरी हुई, राजनीति में तो जहाँ देखो वहाँ आग ही लगाई जाती है। कुछ लोग राजनीति को आग से खेलने का जरिया बना लेते हैं। बहुत कुछ कुछ स्वाहा करने के बाद, वे परिवेश में गर्मी बढ़ा देते हैं।
बरसाने को छोड़ दें तो डंडामार होली या बाड़मेर को छोड़ दें तो पत्थर मार होली अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती, किन्तु पत्थर मार या डंडामार राजनीति हमारे देश में हर कहीं देखी जा सकती है। वैसे तो पत्थरदिल इंसान भी होली खेलते-खेलते कोमल हृदय का हो जाता है किन्तु राजनीति में उतरकर कोमल दिल वाला मनुष्य भी पत्थर दिल हो जाता है। वस्तुतः राजनीति, कुछ-कुछ बाज़नीति होती है जो कमज़ोर होता है उसे दबोच लेती है। या कई लोगों को इसकी खाज-खुजली हमेशा बनी रहती है, इसलिए इसे खाजनीति भी कहा जा सकता है। ताज पहिनने की लालसा वाली ताजनीति भी कह देंगे तो चलेगा।
होली में सुर प्रवृत्ति विजयी होती है तथा असुर प्रवृत्ति जल कर राख। राजनीति में असुर प्रवृत्ति वाले ही बहुधा शिखर छूते हैं। लकड़ियाँ तो प्रतीक मात्र होती हैं। कहीं पर चलाई जाती हैं, कहीं पर जलाई जाती हैं।
पुरानी कहावत है होली नंगों की होती है, और आज की राजनीति, क्या बड़े शालीन लोगों की? होली में जलाई जाने वाली बेकार की वस्तुएँ जैसे टूटी खटिया, बिन पाये की कुर्सी, जंगली लकड़ी बहुधा चुराई जाती है, जबकि राजनीति में सत्तासीन लोग तरह-तरह के ऊँचे चौर्य कर्मों में रत पाये जाते हैं। होली के आसपास कुछ दिनों का मौसम ही पानीदार रहता है, जबकि सत्ता प्राप्त राजनीतिज्ञों के चहुँ ओर मौसम हमेशा ही पानीदार बन रहता है। आज की रंगीनियत का भी यही हाल है। होली की रंगीनियत कुछ दिनों की मेहमान होती है, जबकि राजनीति की, जाने का नाम ही नहीं लेती।
होली जलाने की कथा का सार यह है कि भक्त प्रह्लाद को होलिका की गोद में बैठा दिया जाता है, अंत में होलिका का तो दहन हो जाता है, प्रह्लाद बच जाते हैं। किन्तु राजनीति की गोद में जब भले लोग आकर बैठते हैं, तो उनकी मनुष्यता और संवेदना ही नहीं वे स्वयं भी जलकर राख हो जाते हैं, अलबत्ता, राजनीति बची रहती है। होली की लकड़ियाँ तो चार छः घंटों में जलकर राख हो जाती हैं, किन्तु राजनीति में घुसने के बाद भले लोग तिल-तिल कर उम्र भर जलते रहते हैं, कहाँ आग में पाँव दे दिया? होली जल जाने के बाद, दिन प्रतिदिन छोटा होता काला वृत्त, ज़मीन पर कुछ ही दिन दिखाई देता है जबकि राजनीति की काली वृत्ति एक बार प्रवेश कर गई तो दुनिया द्वारा जीवनपर्यंत देखी जाती है। होली में एक दूसरे पर अबीर गुलाल और रंग फेंके जाते हैं , जबकि राजनीति में एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप, पत्थर और कुर्सियाँ।
आग लगाने से पूर्व प्रत्येक होली पर एक एक ध्वजा फहराई जाती है, जबकि प्रत्येक राजनीतिक दल किसी न किसी झंडे के नीचे काम करता है। होली में झंडा और डंडा जलता है जबकि राजनीति में झंडा और डंडा चलता है।
१९४७ तक प्रत्येक बस्ती में एक-एक होली ऐसी जलती थी, जिनमें विदेशी वस्त्र, विदेशी वस्तुएँ जलाई जाती थीं। आजकल प्रत्येक मोहल्ले में भैया साहब की पहली, ठाकुर साहब की दूसरी, और नेताजी की तीसरी होली जलती रहती है। याने हर नेता की हो ली। आज राजनीति इस तरह हावी है कि होली, भले ही होली की न रहे, पूरी तरह राजनीति की हो चुकी है।
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