अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

भीख

लखमीचंद-  यह पाँच वर्ष का लड़का भीख माँगता है? अभी से ही माता-पिता ने भीख माँगने की आदत डाल दी है? ऐसे भिखारियों को मैं कभी भीख नहीं देता।
अधीनस्थ कर्मचारी–  जी सर, माँ बाप बड़े निर्दयी होंगे। वैसे भीख दे देकर हम लोगों ने भी इनकी आदत बिगाड़ रखी है।
लखमीचंद-  इन्हें कोई भी डाँट देता है पर ये अपनी आदत से कभी बाज़ नहीं आते। फिर शुरू हो जाते हैं।
अधीनस्थ कर्मचारी-  हाँ सर, इन लोगों की दुम हिलाने की आदत पड़ गई है, आसानी से जाती नहीं.?
लखमीचंद-  भीख माँगना बुरा है, अपमानित होकर होकर पुनः माँगते रहना तो और भी बुरा।
अधीनस्थ कर्मचारी-  बिलकुल ठीक सर, आपका विश्लेषण सही है।
लखमीचंद-  आज मंत्रीजी का जन्म दिन है। अभी दस ही तो बजे हैं, चलो फूलों का बढ़िया हार ले चलें। संचालक के पद पर मेरी पदोन्नति हो जाये तो अच्छा।
अधीनस्थ कर्मचारी-  हाँ सर यही उपयुक्त समय होता है कुछ माँगने का। बड़े आदमी हैं, ख़ुश होकर कुछ न कुछ तो दे ही देंगे।
लखमीचंद-  लेकिन ऐसी बात करो तो कभी-कभी वह डाँट भी देते हैं।
अधीनस्थ कर्मचारी-  तो क्या हुआ सर, पुराने मंत्री भी डाँट देते थे। लेकिन हमें निवेदन करना कभी नहीं छोड़ना चाहिए। वह दें या न दें हमें मांगना नहीं छोड़ना चाहिए।
लखमीचंद-  उन्होंने तो मुझे पदोन्नति नहीं दी क्या पता वर्तमान मंत्री भी देते हैं या नहीं? लेकिन मेरे पिताजी कहा करते थे अपना काम करते रहना चाहिए, दें उनका भी भला, न दें उनका भी भला।
अधीनस्थ कर्मचारी-  हाँ सर मेरे पिताजी की भी यही सीख थी, माँगते रहने में कोई बुराई नहीं है।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

यात्रा-संस्मरण

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

कविता-मुक्तक

कविता

हास्य-व्यंग्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं