निन्दा-स्तुति का मज़ा, भगवतभक्ति में कहाँ
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. हरि जोशी1 Mar 2019
जीवन का जो मज़ा निन्दा-स्तुति में है, वैसा भगवत भक्ति में कहाँ? निन्दा-स्तुति वह नौका है जो अठखेलियाँ करती हुई, रसवर्षा से सराबोर करती हुई, मनोरंजक हिचकोले खाती हुई, किसी भी उद्यमी व्यक्ति की ज़िंदगी की नदी को ख़ुशी-ख़ुशी पार करा देती है। निन्दा-स्तुति से प्रतिदिन प्रतिपल अमृत निकलता रहता है। अविराम रसपान करते रहिये और जीवन को सार्थकता दीजिये। जीवन के सञ्चालन की यह सबसे सस्ती सुंदर और टिकाऊ विधि है। इसका व्यसन सारे व्यसनों की तुलना में अधिक आनंददायी होता है। इसमें किसीसे दीक्षा लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। "करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान"। स्वप्रेरणा से ही व्यक्ति इस कला में पारंगत हो जाता है। उठते-बैठते, ट्रेन में, बस में, कहीं भी हृदयंगम करने वाली इस क्रिया की साधना आसानी से की जा सकती है। आसपास के परिवेश में जितनी दृष्टि दौड़ाओगे, मैदान में खेलने को उतने ही खिलाड़ी तथा उतने ही अवसर मिल जायेंगे। कभी इन पर केन्द्रित हुए, कभी उन पर।
सोचिये भगवत स्तुति में कितनी मेहनत करनी पड़ती है? वैसी कष्ट साध्य आदत से भगवान ही बचा सकता है। पहले किसी को गुरु बनाओ। उनके सान्निध्य में कई दिन स्वाहा करो, तब मुश्किल से एकाध सूत्र मिलता है। बहुधा वह कान में एक मन्त्र दे देते हैं। कहते हैं नियम से, बिना नागा इस मन्त्र का जाप होना चाहिए। मन्त्र सिद्धि के लिए भगवतभक्ति लगती है, और उसमें भी पक्का नहीं कि वह अलौकिक सिद्धि मिल ही जायेगी? जबकि मंत्री पद की सिद्धि के लिए मात्र निंदा स्तुति का जाप लगता है। इसमें भले ही देश या प्रदेशस्तरीय पद मिले या न मिले, ग्राम पंचायत मंत्री की कुर्सी तो कहीं नहीं गई। प्रतिपक्ष के सदस्य बार-बार लगातार एक ही काम तो करते हैं? और देखिये चुनकर आ जाते हैं। सामने वाले की निंदा करने का ही यह लाभ होता है कि निंदक को कुर्सी मिल जाती है। मंत्री पद की सिद्धि में ऐशो-आराम होता है जबकि मन्त्र की सिद्धि कष्ट ही कष्ट। इसलिए जिसे सरलता से प्राप्त किया जा सकता है वही क्यों न किया जाये? मन्त्र सिद्ध करने के लिए एक जगह बैठना पड़ता है, जबकि मंत्री पद सिद्ध करने में निर्द्वन्द्व होकर यत्र-तत्र घूमा जा सकता है। भ्रमणशील होकर दुनिया को तो समझा और पाया जा सकता है, एकल कूड़े रहकर भगवान को पा ही लेंगे क्या यह सुनिश्चित है?
गुरु का आदेश होता है, प्रतिदिन निश्चित समय, नियत स्थान पर बैठो। तभी भगवतभक्ति का पुण्य मिलेगा। कई बार तो आदेश होता है, स्नान करके, गीले वस्त्र पहिन कर, पूजाघर में एक बार नहीं, त्रिकाल संध्या में बैठो, आँख बंद करो, ध्यान लगाओ। दुनिया में इतनी सारी आकर्षक वस्तुएँ हैं, उन सबसे ध्यान हटाकर एक जगह केन्द्रित करना कष्ट साध्य काम है! कभी-कभी भगवत स्तुति में सुंदर चित्र या मूर्ति के के सामने भक्तों को बस गाते रहना होता है। श्रोता सुनते रहते हैं और अकारण ही प्रसन्न होकर चले जाते हैं। क्या कभी किसी देवी स्तुति ने, आसानी से शत्रु के शत्रु को अपना मित्र बनाया है? जी हाँ निन्दा-स्तुति न सिर्फ घनिष्ट मित्र बनाती बल्कि बड़ा मित्र समूह या दल खड़ा कर सकती है। देश में शासन करने को जो बड़े-बड़े दल एक पाँव पर खड़े हुए हैं क्या वे भक्ति के लिए तत्पर हैं? वे तो शक्ति बढ़ाकर और सर्वोच्च पदों पर काबिज़ होने के लिए जी जान लगाते हैं। निंदा स्तुति इन सीढ़ियों को तेज़ी से चढ़ने की अचूक जुगत है। प्रभु की प्रार्थना क्षणिक आनंद तो दे सकती है किन्तु दुनिया की भौतिक प्रगति में उसकी वह उपयोगिता कहाँ जो किसी की निंदा करने में है। ऑफ़िस में बैठे हैं तो अपने दुष्ट बॉस के “सद्गुणों” की चर्चा शुरू कर दीजिये, अनेक कर्मचारी आपके हितैषी बन जायेंगे। यदि आप लगातार उच्चाधिकारियों के विरुद्ध “अमृतवर्षा” करते रहेंगे तो एक दिन कार्यालय के समस्त कर्मचारी एकजुट होकर आपको अपने संगठन का समग्र नेतृत्व सौंप देंगे। देवी स्तुति में कई मूढ़ भक्त अपनी ज़बान काट सकते हैं जबकि निन्दा-स्तुति में तो जिह्वा डेढ़ फ़ुट की स्वतः ही हो जाती हैं। निन्दा-स्तुति सिर्फ़ रसवर्षा ही नहीं करती रसमलाई काजू या बादाम का स्वाद भी दिलाती रहती है। इसमें न किसी प्रसाद का ख़र्च न किसी को भोग लगाना। निंदा स्वयं ही भोगविलास की वस्तु है। बिना किसी व्यय के सर्वत्र उपलब्ध रहती है। पुरातन काल के निंदक अनपढ़ अविकसित तथा असभ्य होते थे, सिर्फ़ परस्पर चर्चा कर लेते थे आज तो ऐसी चर्चाएँ “वाइरल" हो जाती हैं, जो दुनिया भर की निगाह में, जन-जन के कान में पहुँच जाती हैं। उच्च स्तरीय निंदक, बड़ा हाईटेक होता है। पहले के निंदकों को तो सुविधाएँ देते हुए आँगन में कुटी छवाकर तक दे दी जाती थी ताकि वे भरपूर निंदा कर सकें। आजकल समझदारी बढ़ गई है, कोई कुटी बनवाकर या छवाकर नहीं देता क्योंकि निंदक ही इतने सामर्थ्यवान हो गए हैं कि वे स्वयं ही अपने महल खड़े कर लेते हैं।
निन्दा-स्तुति सबसे सरल विधि का नाम है। न एकाकीपन, न अध्ययन या पूर्व चिंतन करने की ज़रूरत। चुप बैठने का तो सवाल ही नहीं? इसके प्रताप से मित्रों की संख्या लगातार बढ़ती चली जाती है। निन्दा-स्तुति एक से अनेक होने की तपस्या है। इसके शुरू होते ही जाति भेद, वर्ण भेद, रंग भेद सब समाप्त हो जाते हैं। यह एक अचूक आराधना है। इसमें और कुछ मिले न मिले आनंद बहुत मिलता है। खून भी बढ़ जाता है और सबसे बढ़िया टाइम पास है। "निंदक नियरे राखिये" को ध्यान में रखकर ही इस एक विधि से घोर निंदक भी नीयर हो जाते हैं। विधान सभा हो या लोक सभा, निंदक को और नीयर करने के लिए समवेत स्वर से सबके वेतन भत्ते बढ़ जाते हैं। जो आज प्रतिपक्ष में है, कल वही सत्ता में आ जायेगा। निन्दा-स्तुति में मिली भगत और निकटता दोनों का समावेश रहता है। अब तक तो आप समझ ही चुके होंगे जो आत्मिक शान्ति निन्दा-स्तुति में मिलती है, वह भगवतभक्ति में कभी नहीं मिल सकती।
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