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सौ-सौ चूहे खाकर बिलाव हज को चला

 नर बिलाव मूँछों वाला था। कंजी आँखों वाला अवसरवादी। मक्खन स्वयं चट करने और पदासीन लोगों को लगाने में अग्रणी। नैतिकता और भारतीयता के प्रति कमनिष्ठ। दामपंथ और सलाम पंथ का घोर समर्थक।

शिविरबद्धता का लाभ उठाकर शिखर पुरुष बन बैठा। शीर्ष सम्मान, शिखर पुरस्कार, रूस और चीन की मेज़बानी का आनंद, सभी कुछ हस्तगत किये। कौन सा पुरस्कार था जो उसे अप्राप्त रहा?

दो पाँव वाला नर बिलाव (दो पाँव गुप्त थे)। इस अवसर पन्थी शिविर से सब कुछ ले भगा। सैकड़ों मूषकों को अपने चतुर पंजों से ठिकाने लगाने के बाद सोचा तीर्थ यात्रा क्यों न कर ली जाये?

अब इन पुराने छींकों में रह भी क्या गया है?

उसने कमनिष्ठों की ओर गुर्राकर देखा। उचित अवसर आने पर फ़तवा जारी कर दिया "कम निष्ठा के कारण ही साहित्य और संस्कृति की इतनी हानि हुई है। भले ही अतिनिष्ठों की पंक्ति में न बैठ पाए, वह कम निष्ठों की क़तार से बाहर आ चुका है। उसे पूरा विश्वास है कि उस शिविर के शीर्ष बिंदु से चलकर इस शिविर के शीर्ष बिंदु तक भी वह अवश्य पहुँच जायेगा।

अर्थ और काम उस शिविर ने प्रचुर मात्र में दिए। धर्म और मोक्ष इस शिविर में आकर कमा लेगा। याने शाम को पी, सुबह को तौबा कर ली, रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई।

उसकी आत्मा क्षण भर में ही सारे कलंकों को धो लेना चाहती है। उस घाट पर कमनिष्ठ रहकर पूँजी एकत्र की। इस घाट पर धूनी रमाने एक पाँव पर खड़े हुए हैं। लोग उन्हें पहुँचे हुए तपस्वी की तरह देख रहे थे।

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