फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाएँ और उनकी प्रासंगिकता
आलेख | साहित्यिक आलेख पं. विनय कुमार15 Jan 2022 (अंक: 198, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
हिंदी साहित्यकाश के मंच पर विराजमान फणीश्वर नाथ रेणु की पहचान एक श्रेष्ठ आंचलिक कथाकार और उपन्यासकार के रूप में हुई है। उनकी प्रतिभा ने प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा साहित्य को नई भाव भूमि प्रदान की और विश्व स्तर पर एक नई पहचान भी प्रदान की है। किन्तु सच्चाई यह है कि उनकी मौलिकता पर अनेक सवाल खड़े किए गए हैं और इस कारण अनेक हिंदी साहित्य के पाठकों और रचनाकारों का रचनाशील मन दुखी और आहत हुआ है। डॉ. कलानाथ मिश्र ने परिषद पत्रिका के अंक में लिखा है कि “हिंदी उपन्यास साहित्य में आंचलिकता की एक नई धारा को जन्म देने वाले महान कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की प्रथम उपन्यास एक कृति “मैला आँचल” अपने प्रसिद्धि और सफलता के बावजूद कुछ साहित्यकारों के द्वारा उसकी मौलिकता पर लगाए गए प्रश्न चिह्न से आहत हुई है।”1
सच्चाई यह है कि इनकी आंचलिकता का अपना एक अलग रंग है और उसकी स्पष्ट छाप पाठकों पर देखने को मिलती है। डॉ. अनीता राकेश ने “रेणु की संपूर्ण कहानियाँ” शीर्षक अपने आलेख में ठीक ही लिखा है कि “रेणु की संपूर्ण कहानियों में मूलत: गाँवों में पलते छोटे-छोटे सपने एवं अरमानों के चित्र हैं तथा इन्हें पूरा करने में संघर्षरत लोग अपनी समस्त बुराइयों के बावजूद वे अपने भीतर के इंसान को कभी मरने नहीं देते या तो वे जीतते हैं या हार कर भी हार को स्वीकार नहीं करते। शहरी सभ्यता या यूँ कहें शहरों में सभ्य होने का जो ढोंग हम करते हैं उस पर यह कहानियाँ कालिख पोतती-सी नज़र आती हैं।”2
बहरहाल, रेणु जी की कहानियाँ हों अथवा उनका उपन्यास, प्राय: सब में जीवन के अलग-अलग रंग हैं, जीवन का अलग-अलग अनुभव है, जीवन जीने का संदेश है और जीवन की कटु-मधु स्मृतियाँ भी एक साथ देखने को मिलती हैं। सच तो यह है कि कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं का अपना एक अलग सौंदर्य है। वह सौंदर्य बरबस पाठकों को अपनी ओर खींचता है। उनके रचनात्मक सौंदर्य इस वजह से लोगों को आकर्षित करते हैं क्योंकि वह न केवल एक कथा शिल्पी और उपन्यासकार के रूप में हिंदी साहित्य के फलक पर विराजमान हैं बल्कि वह एक सधे हुए श्रेष्ठ कहानीकार भी हैं, पत्रकार भी हैं, नाटककार भी हैं, संस्मरणकार भी है, हास्य व्यंग्यकार भी हैं, निबंधकार भी हैं, टिप्पणीकार भी हैं और कवि भी हैं।
यदि विचार करें तो कथाकार शरदचंद्र और प्रेमचंद के बाद रेणुजी ही एक ऐसे कथाकार के रूप में हिंदी जनमानस में समादृत हैं जिनका रचनात्मक वैशिष्ट्य मानव जीवन की वास्तविकताओं को छूता है। यही कारण है कि एक ओर वे ग्रामीण जीवन का चित्रण करते हुए वह तह तक जाते हैं जहाँ मानवीय संवेदना स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगती है और जीवन की जटिलताएँ भी उभर कर सामने आने लगती हैं। इसके साथ-साथ मनोवैज्ञानिक स्तर पर वह स्त्री और पुरुष का स्वाभाविक चित्रण इस तरह से करते हैं जिसे देखकर ऐसा लगता है कि वे एक आँखों देखी घटना पाठकों के सामने सुनाने जा रहे हों जिसमें एक ओर रोचकता और कौतूहलता का पुट दिखलाई पड़ता है तो दूसरी ओर मानव जीवन के लिए एक संदेश भी देते नज़र आते हैं। आशीष त्रिपाठी ने एक जगह लिखा है, “रेणु भारतीय गाँव के अनोखे और सच्चे कथाकार हैं। प्रेमचंद की तरह प्रामाणिक। रेणु को प्रेमचंद और शरतचंद्र के बीच कहीं रखा जा सकता है। रेणु में प्रेमचंद की तरह ग्रामीण जीवन की वास्तविकता को पकड़ने और शरद की तरह मानवीय स्थितियों और स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलताओं को पहचानने की कोशिश दिखलाई देती है। रेणु की कहानियाँ मुख्यतः मानव संबंधों की कहानियाँ हैं।”3
आज रेणु जी की रचनाएँ प्रेमचंद के बाद भारतीय जीवन और संघर्ष की सच्ची कहानी प्रस्तुत करती हैं। इन रचनाओं में एक ओर भारत की तत्कालीन राजनीति की दाँवपेच और उथल-पुथल के दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर गाँव की ग़रीबी और जहालत भरी ज़िन्दगी का रौद्र रूप भी दिखलाई पड़ता है साथ ही साथ ग्रामीण जीवन में चलने वाले अंधविश्वास और लोक परंपरा का भी हमें तत्कालीन जीवन की सच्चाइयों से अवगत करा देते हैं। विद्या सिन्हा ने ठीक ही लिखा है कि “रेणु के साहित्य, उनके लेखन और व्यक्तित्व को समझने के लिए उनके उस परिदृश्य को समझना ज़रूरी है जो राजनीति और संवेदनशील मानवीयता, गाँव और शहर, यथार्थ और आस्था, ग़रीबी, जहालत, गंदगी और सौंदर्य, ज्ञान और समृद्ध अभिव्यक्ति सामर्थ्य तथा जनजीवन के बहुविध विस्तार तक पसरा हुआ है। रेणु ने राजनीति के संदर्भ में एक साक्षात्कार में कहा है, “मैं हॉल टाइम साहित्य करने के पहले राजनीति करता था यानी पार्टी में था किसान मज़दूरों के बीच। किसानों की कई एक बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं। मज़दूर आंदोलनों में सक्रिय भाग लेता रहा। राजनीतिक पार्टी का सदस्य न होकर भी आदमी राजनीति कर सकता है—यह बात लोगों के दिमाग़ में अटेगी भी नहीं। मेरी रचनाएँ ख़ासकर मैला आँचल, परती परिकथा, तथा दीर्घतपा, जुलूस, कितने चौराहे सभी राजनीतिक समस्याओं एवं विचारों के ही प्रतिफल हैं।”4
रेणु पर विशेष रूप से काम करने वाले विद्वान आलोचक भारत यायावर ने काफ़ी कुछ लिखा है। एक जगह उन्होंने लिखा है कि “रेणु जी को अनेक स्थानों पर घनघोर उपेक्षा का शिकार होना पड़ा क्योंकि वह कहानियों के उस दौर में फ़िट नहीं बैठ रहे थे“5 और यही कारण है कि आगे चलकर बहुत बाद उनकी कहानियों ने प्रसिद्धि प्राप्त की। सच तो यह है कि 1951 में प्रकाशित “दूसरा सप्तक“ की भूमिका में अज्ञेय ने उस दौर की कविता को प्रयोगवादी न कह कर नई कविता कहने पर ज़ोर दिया था और आलोचकों ने छठे दशक की कविता को “नई कविता“ नाम से अभिहित कर दिया था। उसी तर्ज़ पर हिंदी कहानी के तीन स्तंभ मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर ने “नई कहानी“ आंदोलन का नारा दिया था। इस तथाकथित नई कहानी की कुंडली बनाने का काम आलोचकों में नामवर सिंह ने किया था जिनकी पुस्तक “कहानी: नई कहानी“ इसका प्रामाणिक दस्तावेज है।”6 यही वह समय था जब फणीश्वरनाथ रेणु अपने ही ढंग की कहानियाँ लिखने में मशग़ूल थे लेकिन उनकी ओर किसी आलोचक का ध्यान नहीं गया था। उनकी ओर लोगों का ध्यान तब गया जब “मैला आँचल“ और“परती परिकथा“ छठे दशक की सबसे बड़ी रचनात्मक उपलब्धि लेकर आम पाठकों के बीच मुख़ातिब हुई और इसके ही अनंतर उनकी “लाल पान की बेगम”, “तीसरी क़सम“ अर्थात् “मारे गए गुलफाम”, “पंचलाइट“ और“ठेस“ नामक कहानियाँ एक-एक कर सामने आने लगीं।
आज हिंदी में तीन विमर्श प्रचलन में हैं दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और आदिवासी विमर्श। जब हम उनकी रचनाओं को भली-भाँति पूर्वक पढ़ते हैं तो स्पष्ट पता चलता है कि उन्होंने बहुत पहले अपनी रचनाओं में इसकी पृष्ठभूमि तैयार कर रखी थी। रेणु का लोक जीवन संस्कृति से जुड़ा हुआ है वह संस्कृति जो “परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम्“ का उद्घोष करता है। लोकजीवन से जुड़ा हुआ जो उनका जीवन है वह बार-बार हमें प्रेरित करता है। रेणु को हमेशा गाँव की चिंता सताती थी। हर 15 दिन पर या महीने गुजरते ही वह गाँव का रुख़ करते थे। गाँव की खेती-बाड़ी, गाँव का रहन-सहन, गाँव के लोगों से मेलजोल, गाँव की राजनीति और गाँव की आबोहवा के साथ-साथ गाँव की लोक परंपरा से उनका गहरा जुड़ाव था। यही कारण है कि उनकी अनेकानेक रचनाओं में ग्रामीण जीवन के परिदृश्य सहज ही दिखलाई पड़ जाते हैं।
रेणु जी भारतीय संस्कृति और संस्कार को पुनर्जीवित बनाए रखने वाले रचनाकार हैं। उनकी लेखनी का महत्त्व इसलिए आज है कि वे सच्चाई के साथ अपनी बातों को पाठकों के सामने रखते हैं। उनके भीतर छल कपट नहीं है, किसी के प्रति ईर्ष्या द्वेष नहीं है, कबीर और तुलसी की तरह उन्हें किसी से लेना देना नहीं है। इसीलिए उनके ऊपर तुलसी की यह काव्य पंक्ति सटीक उतरती है जिसमें वे कहते हैं—माँगि के खेबौ मसिद में सोईबो ना लेबो का लेबो ना देबो का ना देबो। (कवितावली)
तुलसी हो या कबीर उनका चिंतन लोक मंगलकारी प्रतीत होता है। लोग मंगल के क्षेत्र में वह कोना-कोना झाँक आए हैं। सांस्कृतिक चिंतन और राजनीतिक चिंतन तो उनकी प्रत्येक रचनाओं में है ही, वह ऐसा समाज बनाने की परिकल्पना करते हैं जहाँ ’सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ की भावना नज़र आती दिखे। उन्हें धरती माता से बेहद प्यार है। वह प्यार उनके भीतर बनावटी का प्यार नहीं है बल्कि वह सत्यता को लिए हुए है जिसमें आत्म समर्पण और त्याग की भावना निहित है। उदाहरणार्थ 13 अप्रैल 1971 को लिखी गई उनकी कविता जिसका शीर्षक है, “खून की क़सम“ उसमें वे बांग्लादेश की जनता, उनके नेता मुजीब, माँ की बेचैनी और चिंता के साथ-साथ शान्ति बहाल करने की आकांक्षा दिखाई पड़ती है। रेणु जी के शब्दों में:
नयन से नीर बहा मत माँ
अभी भी जीवित तेरे पूत
किया है हमने अर्पित प्राण
––––––––-
× × × ×
कभी मर सकता वह नहीं
तुम्हारा बेटा वीर मुजीब,
शत्रु ख़ुद हो जाएँगे क्षार
मुक्ति का दिन है बहुत क़रीब!
होंठ पर “जय बंगला“ गान
चले हम करने को निर्मूल
दुश्मनों के सारे अभिमान।”7
राजनीति हो या साहित्य, कृषि हो या अन्य व्यवसाय, उन्होंने समाज-परिवार में एक दूसरे को ठगते हुए-ठगाते हुए देखा है। छल-छद्म युक्त जीवन का कार्य-व्यापार रेणु जी को पसंद नहीं। यही कारण है कि समाज में ऐसे चालबाज़, धोखाधड़ी करने वाले लोगों को जब वे देखते हैं तो सहज ही दुखी हो जाते हैं। उन्होंने इस पर “बहुरूपिया“ शीर्षक से एक कविता लिखी थी। जो मूलतः एक व्यंग्य कविता है लेकिन वह मर्म को छूती है। कवि रेणु चाहते हैं की कथनी और करनी में भेद न रहे। तभी समाज-परिवार के स्तर पर शान्ति बनी रह सकती है। अन्यथा बेवजह लड़ाई-झगड़े तो होंगे ही, लोगों का समय भी व्यर्थ बर्बाद होता जाएगा। इसलिए वे शान्ति और सर्वत्र अमन-चैन की कामना करते हैं। एक अन्य कविता में रेणु जी लिखते हैं:
दुनिया दूषती है
हँसती है
उँगलियाँ उठा
कहती है—
कहकहे कसती है–
राम हे राम!
क्या पहरावा है
क्या चाल-ढाल
सबड़-भबड़
आल-जाल-बाल
हाथ में लिया है भेख?
जटा या केश?
जनाना-ना-मर्दाना
या जन–––
आ-खा-हा-हा
हीं-हीं–8
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी आज़ादी की लड़ाई में शामिल एक सर्वोपरि नेता थे। उनका अवदान भुलाया नहीं जा सकता। एक धोती पहनने और ओढ़नेवाले और अपने लिए कुछ भी नहीं बचा कर रखने वाले गाँधी जी भले ही उस समय देश के लिए सर्वस्व त्याग की घोषणा कर चुके थे किन्तु उनके अनुयायियों में छल-कपट तथा झूठ-सच की राजनीति को देखकर रेणु जी आहत हो रहे थे। वे जानते थे कि चंद भारत के लोग भारतवासियों के साथ गद्दारी कर रहे हैं क्योंकि गाँधी जी के जो वास्तविक मानवीय जीवन मूल्य थे, उनसे उनके ही अनुयायी (गाँधीवादी विचारधारा में पले-बढ़े लोग) “खाओ-पियो मौज उड़ाओ” की संस्कृति अपनाए जा रहे थे। इसे देख-देख रेणु जी दुखी और चिंतित हो रहे थे। इसी स्थिति को देखकर रेणु जी कहते हैं:
“कांग्रेस की करो चाकरी, योग्य सदस्य बनाओ,
परम पूज्य काले परवाना खुलकर मौज उड़ाओ।
जोगी जी सर-र-र-––
ख़ाली पहनो, चाँदी काटो, रहे हाथ में झोली
दिनदहाड़े करो डकैती, बोल सुदेशी बोली।
जोगी जी सर-र-र–“9
कहना नहीं होगा कि उनकी कविताएँ हो या कथा-साहित्य, प्रायः सभी जगहों पर जहाँ वे अन्याय, दुराचार, भ्रष्टाचार, अपमान देखते हैं, वहाँ वे उसकी निंदा करते हैं और उन बातों को पाठकों के सामने रखते हैं ताकि सुधार की स्थिति क़ायम रहे। उनका “कितने चौराहे“ उपन्यास स्वाधीनता संग्राम का उपन्यास है जिसमें 1934 के भूकंप आगमन से लेकर गाँधी जी के बिहार आगमन 1965 तक की घटनाओं को केंद्र में रखकर लिखा गया है। 1965 के समय जब पाक आक्रमण की घटना घटती है तो उसका भी रेणु जी ने बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। डॉ. शत्रुघ्न प्रसाद ने लिखा है कि “कितने चौराहे नामक उपन्यास स्वाधीनता आंदोलन का औपन्यासिक अभिलेख प्रतीत होता है। इस लघु उपन्यास में किशोर नामक मनमोहन के राष्ट्रीय व्यक्तित्व का विकास क्रम चित्रित हुआ है। यह राष्ट्रीय बोध के विकास क्रम का उपन्यास है। इस विकास क्रम के अनेक चौराहे आते हैं। ऐसा लगता है कि मनमोहन (मुनि जी) के रूप में रेणु जी का कैशोर्य विकसित होता है। आइरिस कोर्ट के स्कूल में पहुँचकर मुनि जी क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा प्रियवत राय से राष्ट्रीयता, स्वराज साधन, संघर्ष एवं सेवा की दीक्षा पाता है।”10
कहना नहीं होगा कि इसके बाद ही वे निरंतर रचनाशील रहे। रेणु जी वस्तुत अद्भुत क़िस्सागो थे। कहने की आदत कुछ प्रेमचंद और शरदचंद से मिलती-जुलती प्रतीत होती है। इस तरह उनके लेखन में क़िस्सागोई अथवा कथावाचन की झलक दिखलाई पड़ती है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में कथा के भीतर कथा और अतीत और वर्तमान को एक दूसरे से जोड़ते हुए एक ऐसे कथा वृत्त का सृजन करते हैं कि वह आँखों देखी घटना प्रतीत होने लगती है। विद्या सिन्हा ने अपने एक आलेख में लिखा है कि “रेणु अद्भुत क़िस्सागो थे—कुछ हद तक शरद की तरह। रेणु ने क़िस्सागोई या कथा वाचन के साथ खुलकर प्रयोग किए हैं। अपने उपन्यासों और कहानियों में भी। कथा के भीतर कथा और अतीत के भीतर धड़कते हुए वर्तमान को रेणु बड़ी सहजता से प्रस्तुत करते हैं। कथा वाचन के अनेक स्तरीयता में मौजूद जातीय संभावनाओं का उपयोग रेणु जी ने अपने आशय को व्यक्त करने के लिए किया है।”11
इसके अलावे रेणु जी की रचनाओं में भारतीय नवजागरण काल में अपनी कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा से समाज एवं देश स्तर पर अलख जगानेवाले महापुरुषों की विचारधारा का जुड़ाव भी मिलता है। डॉ. शत्रुघ्न प्रसाद लिखते हैं, “रेणु जी की रचनाओं में वैचारिकता नवजागरण के दूत विवेकानंद, स्वाधीनता आंदोलन के पुरोधा महात्मा गाँधी और भारतीय समाजवाद के प्रकाश पुरुष जयप्रकाश नारायण के चिंतन पर आधारित है। विवेकानंद का अद्वैत समाज चेतना, गाँधीजी की हिंसक संघर्षशीलता और जयप्रकाश जी समाजवादी चेतना ने रेणु जी के वैचारिक व्यक्तित्व को अनुप्राणित किया है।”12
यही कारण है कि उनकी रचनाओं में एक ओर गाँधीवादी चिंतन की छाप है, तो दूसरी ओर जयप्रकाश नारायण की क्रांति का स्वर भी स्पष्ट परिलक्षित होता है। उनके उपन्यासों में अनेक ऐसे पात्र हैं जो गाँधी जी में श्रद्धा रखते हैं। गाँधी जी की विचारधारा को केंद्र में रखकर रेणु जी ने एक तरह से सामाजिक संस्कृति एवं विचारधारा को सँजोने का प्रयास किया है। गाँधी जी के उपदेश सत्य, अहिंसा, दया, क्षमाशीलता, अनुशासन प्रियता और श्रम के प्रति जुड़ाव सब मिलकर रेणु जी के कथा साहित्य में नूतन सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं। इसी तरह जयप्रकाश जी का तत्कालीन वर्तमान राजनीति से वितृष्णा का भाव भी उनकी रचनाओं में स्थान पाता हुआ दिखलाई पड़ता है। जयप्रकाश जी की सोच और उनका लोकव्यापी संघर्ष का प्रभाव रेणु जी के साहित्य पर विशेष तौर पर पड़ा था। निर्मल वर्मा ने लिखा है कि “रेणु जी की इस पहचान में सौंदर्य की नैतिकता उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी नैतिक अंतर्दृष्टि की संवेदना। दोनों के भीतर एक रिश्ता है जिसके एक छोर पर मैला आँचल है तो दूसरी छोर पर जयप्रकाश जी की संपूर्ण क्रांति। दोनों अलग-अलग नहीं है—वे एक ही स्वप्न, एक लालसा, एक 'विज़न' के ही दो पहलू हैं। एक दूसरे पर टिके हुए हैं। कलात्मक 'विज़न' क्रांति दोनों की पवित्रता उनकी समग्र दृष्टि में निहित है, संपूर्णता की माँग करती है: एक ऐसी संपूर्णता जो समझौता नहीं करती, भटकती नहीं, सत्ता के टुकड़ों पर या कोड़े सिद्धांतों की आड़ में अपने को दूषित नहीं करती। वह एक ऐसा मूल्य है जो खुली हवा में साँस लेता है और इसलिए अंतिम रूप से पवित्र, सुंदर और स्वतंत्र है।”13
फणीश्वरनाथ रेणु का लेखन पीड़ित मानवता के लिए था। उन्होंने जो कुछ लिखा ग़रीबों के लिए लिखा। जो समाज की मुख्यधारा से कटे हुए थे। आज़ादी के लड़ाई के प्रत्यक्ष गवाह और उस वक़्त की टेढ़ी चाल को उन्होंने बड़ी गहराई से देखा और अनुभव किया था। यही कारण है कि स्वाधीनता के बाद जब सामाजिक बदलाव अपने चरम पर था और सामाजिक विसंगतियाँ दबे-कुचले लोगों को तबाह और परेशान कर रही थी तब उनका लेखन यथार्थ की आग उगल रहा था। “रेणु जी देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में ही नहीं, अपितु स्वतंत्रता के बाद भारत भर में वह पीड़ित मानवता के लिए निरंतर लड़ते और लिखते रहे। वह महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित ही नहीं हुए अपितु जीवन में उनके दर्शन को भी अपनाया। स्वतंत्रता के पश्चात पैदा हुई राजनीतिक अवसरवादिता, स्वार्थ और वैचारिक असमानता को बड़ी कुशलता के साथ उन्होंने साहित्य में उजागर किया। उनके साहित्य में मानव जीवन की बुनियादी सच्चाइयों और ज़रूरतों का सच्चा अन्वेषण मिलता है। उन्होंने आम आदमी के जीवन स्पन्दनों को वाणी दी है। उनकी अभिनव भाषा-संरचना समूचे हिंदी साहित्य में अन्य कहीं नहीं देखने को मिलती है। उनके साहित्य में कल्पना और यथार्थ का सुंदर समन्वय देखा जा सकता है।”14
आज़ादी की लड़ाई से हर एक युवा लेखक, कवि और कथाकार प्रभावित हो रहा था। द्विवेदी युग की शुरूआत के साथ पूरे भारत में स्वाधीनता संघर्ष की चहल-पहल हो चुकी थी और इसका भी प्रभाव तत्कालीन सामाजिक और साहित्यिक परिदृश्य पर पड़ा था। विद्वान आलोचक एवं वरिष्ठ लेखक अवधेश प्रधान ने अपने एक आलेख में लिखा है कि “आज़ादी की लड़ाई के दौरान तमाम नए–पुराने लेखक, राजनीति से जुड़े, लड़ाई में शामिल हुए और जेल गए थे, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे यशस्वी कवि, आगे यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, नरेंद्र शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, नागार्जुन और शमशेर जैसे रचनाकारों ने अपनी भागीदारी का जिस रूप में निर्वहन किया वह सचमुच प्रासंगिक है और प्रेरित करने वाला है“!15
सच तो यह है कि उनकी तमाम रचनाओं के अवलोकन से हमें इतिहास की जानकारी ही नहीं मिलती है बल्कि इतिहास की सच्चाई से भी हम रूबरू होते हैं। भारत की एकता और अखंडता, नारी जाति का सम्मान और अपमान, महापुरुषों की प्रेरक वाणी और लालफीताशाही और सफेदपोशों की कारगुज़ारियाँ, भारत के विभिन्न हिस्सों में चलनेवाले अनेक तरह के अंधविश्वास और पुरानी परम्पराएँ, रीति-रिवाज़ और पर्व-त्यौहार यदि हमें एक साथ देखना है तो वह है फणीश्वरनाथ रेणु का समग्र साहित्य। उनके साहित्य में गोते लगाने के बाद और विशेष कुछ जानना शेष नहीं रह जाता क्योंकि उन्होंने जिस रूप में समाज और परिवार, धर्म और दर्शन, विचार और विभिन्न मतवाद को अपनी कथाओं के माध्यम से पेश किया है वह न केवल अद्भुत औरअद्वितीय है बल्कि प्रासंगिक भी है। कथाकार प्रेमचंद और आचार्य शिवपूजन सहाय के बाद यदि हमें अपने गाँव को देखना है, अपने शहर को देखना है, अपने परिवेश को समझना है तो सबसे बेहतर और प्रामाणिक दस्तावेज रेणु की रचनाएँ हैं। इसका कारण यह है कि उनमें बनावटी पर नहीं है। कबीर की तरह उनकी भी रचनाएँ देखी और भोगी हुई हैं। “धरती के सच और इतिहास की चेतना को फणीश्वर नाथ रेणु ने एक साथ आत्मसात किया था। उनकी रचनाएँ इसका प्रमाण है गाँव के खेत-खलिहान, पर्व-त्यौहार, गीत, कथा, रीति-रिवाज़, टोन, भाषा-बोली, मुहावरे, मिज़ाज, तेवर, सोच, मानसिकता, क्रिया-प्रतिक्रिया, जाति-गठन, सामाजिक बनावट, शक्ति-संतुलन, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक यथार्थ, निरंतर होनेवाला परिवर्तन जनित दबाव, इन सब की आपसी अनावश्यक टकराहटें, व्यक्ति समूह और समाज के आपसी बनते-बिगड़ते रिश्ते, प्रकृति के विभिन्न रूप, प्रकृति और मनुष्य का अंतर्संबंध—सब एक जादुई संतुलन में बँधे रेणु के कथा विधान में इस तरह उतरते हैं जैसे साक्षात् एक स्थान (गाँव, क़स्बा, शहर) अपने सारे कार्य-व्यापारों और धड़कनों के साथ वह मूर्त हो रहा हो।”16
रेणु जी की रचनाओं में गाँव है और गाँव का जीवन भी है उसके आसपास प्रकृति का वातावरण खेत-खलिहान और रोजी-रोज़गार से जूझते मज़दूरों और किसानों की लंबी-चौड़ी संख्या है। यह संख्या हमें यह बताती है कि आज़ादी के बाद भारत का विकास अथवा ह्रास किस तरह हो रहा था। उनकी रचनाओं के अनेक पात्र अनेक सामाजिक विकृतियों तथा त्रासद स्थितियों से जूझते हुए अपनी मानवीय गरिमा बचाए रखते हैं। उनकी जो विचारधारा और मान्यता है वह हमें अपनी भारतीय धर्म और संस्कृति की याद दिलाती है और हमें जब विश्वास हो जाता है कि भारत में धर्म की जड़ें काफ़ी पहले से गहरी थी और उनमें मानवीय जीवन-मूल्य बड़े ही सहज और सरल रूप में चारों ओर फैला हुआ था। तुलसी की रामचरितमानस और कबीर की साखियाँ, मीरा के पद और रहीम के दोहे, रसखान की कृष्ण-लीला से संबंधित मधुर पद और रैदास की रचनाएँ—उस समय भारत भर में पढ़ी और बोली जा रही थीं। धर्म के नाम पर भले ही धर्माँधता की स्थिति रही होगी किन्तु यह भी सत्य है कि उसमें महात्मा गाँधी जी के व्यापक प्रभाव से और रामराज्य की परिकल्पना की हुंकार से भारत के जन-जन के मन में ईश्वर और धर्म के प्रति आस्था तथा आस्तिकता विराजमान थी। रेणुजी की रचनाओं को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने समाज को सही दिशा की ओर ले चलने का सारस्वत प्रयत्न किया था। इसलिए यह कहना उचित प्रतीत होता है कि उनकी रचनाओं में भारत की परंपरा, भारत का अध्यात्म और दर्शन तथा तत्कालीन रीति-रिवाज़ और लोक परंपराओं का अनूठा संग्रह है जो बड़ा ही कलित-कमनीय बन पड़ा हैं। रेणु जी के उपन्यास हों या कहानियाँ, इनमें यह अपने स्वभाविक रूप में देखा जा सकता है। समग्रतः इनके साहित्य के भीतर एक लंबे समय का सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास झलक मार रहा है। वह हमें बता रहा है कि हमारा अतीत किन-किन मोड़ों और पड़ावों से होकर गुज़रा है। हमारे देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए यहाँ के लोगों ने क्या-क्या नहीं किया और प्रतिफल में उसे क्या-क्या प्राप्त हुआ। सच पूछा जाए तो रेणुजी ने “परोपकाराय पुण्याय पापाय पड़पीडनम्“ का उद्घोष करते हुए अपनी रचनाओं को सुरसरि के समान न केवल पवित्र बना दिया बल्कि निर्मल और सर्वोपयोगी भी प्रमाणित कर दिया। आज के रेणु जी नहीं है लेकिन उनकी रचनाएँ आज भी हमारा मार्गदर्शन करती प्रतीत होती हैं।
संदर्भ ग्रंथ सूची:
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आधुनिक हिंदी साहित्य के कीर्ति-स्तंभ, संपादक-योगेन्द्र दत्त शर्मा, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, पृष्ठ-194 (ISBN978-81-230-1671-9)
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परिषद पत्रिका, फणीश्वर नाथ“रेणु“ विशेषांक, जुलाई-दिसंबर, 2001, वर्ष-41 अंक-2-3, पृष्ठ-78
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सृजन सरोकार, रेणु विशेषांक, वर्ष-4, अंक-1, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, पृष्ठ-106 (साहित्य, कला-संस्कृति का त्रैमासिक संचयन, ISSN-2581-8856)
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वागर्थ, वर्ष-26, अंक-303, जनवरी-फरवरी 2021, पृष्ठ-65 (भारतीय भाषा परिषद की मासिक पत्रिका, कोलकाता, ISSN 2394-1723)
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आधुनिक हिंदी साहित्य के कीर्ति-स्तंभ, संपादक-योगेंद्र दत्त शर्मा, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, पृष्ठ-192 (ISBN978-81-230-1671-9)
—पंडित विनय कुमार
हिन्दी शिक्षक
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