माँ
काव्य साहित्य | कविता पं. विनय कुमार15 May 2024 (अंक: 253, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
वह हर एक माँ
जो स्त्रीलिंग है
जो स्वयं से लड़ती है जीवन भर
जो सबकी डाँट फटकार सुनती-सहती है जीवन भर
माँ, जो जनती है हमें
और हमारे जैसे अनंत सजीवों को
जिसने नहीं सीखा कभी निराश-हताश होना
मौन रहकर अक्सर
वह कितना बड़ा दुख सहती रहती है
वह हर पल कितना सुनती है अपने दिल की बातें
और आसपास घूर रहे चेहरों को भी
माँ देखती-महसूस करती है
ख़ुद को बार-बार पराजित होना
पति और बच्चों की डाँट सुनती—ख़ुद को सँभालती
किस तरह सँभलती है वह
अभाव और त्रासदी में जीती हुई माँ
कितने स्नेह से मिलती है सभी से
घर में, बाहर में अपने बच्चों की ख़ातिर
तलाश करती है भोजन-पानी
कितना सुकून देता है माँ को देखना
और माँ के साथ जीना
हाँ, हाँ, वह माँ है जो अपने लिए कुछ भी बचा नहीं रखतीं
वह अपने हिस्से का भोजन, हवा, पानी और आकाश—
सँजोती है नन्हे शिशुओं के लिए
और उसका सर्वस्व समर्पण—
देख-देख बड़ा होता है संसार
संसार के हर एक प्राणियों के संग—
माँ दिखती रहती है
कभी प्रसन्न, कभी अप्रसन्न
कभी दयार्द्र और कभी चिंतित
और वह माँ,
जो सोचती है बच्चों के निर्माण के बारे में
वह माँ, जो पठाती है स्कूल रोज़ सबह-सुबह
ख़ुद को भूखा-प्यासा रख कर
देखती रहती है बच्चों को जाते हुए स्कूल
हर सुबह
केवल माँ ही देख सकती है अपने बच्चों को
और माँ के देखने में जो त्याग और समर्पण का भाव
हमारी रूहों को स्पर्श करता है
वह माँ,
जो अभी-अभी खाना बनाकर उठी है
तेज़ क़दमों से सोए शिशु को जगाने के लिए
कितनी कठोरता से उसे झकझोर कर—
उसे अपना कर्त्तव्य बोध कराने के लिए
हर अहले सुबह भेजती है स्कूलों में
वह माँ, जो जवान होती बेटी के ब्याह के लिए
कितनी चिंतित होकर करवटें बदलती है
रात-रात भर
वह माँ, जो अपने पति के अनैतिक कर्मों से
आहत होकर
मौन होकर रोती रहती है
वह माँ, जो अपने अभावपूर्ण ज़िन्दगी में
प्रसन्नता के फूल उगाने के लिए—
कितना कुछ करती है वह—
कितना कुछ छुपाती है वह—
वह सच्चाई, वह यथार्थ
जिसे जानकर पूरी दुनिया उस पर हँसेगी—
जिसे जानकर पूरी दुनिया
उसकी खिल्ली उड़ाएगी
वह माँ, जो बेवजह घर से निकल कर
घूम रहे बेटे को समझाने के लिए—
सोचती रहती है कोई न कोई तौर-तरीक़ा
वह माँ, जो अक्सर अपने पुत्र-पुत्री को
सही राह पर लाने के लिए
न जाने
कितना कुछ का त्याग करती रहती है जाने-अनजाने
वह माँ, जो अभी-अभी अपने बच्चे को
पुचकारने के लिए बनावटी हँसी
ख़ुद के चेहरे पर लाकर
फिर अगले ही पल
लगातार रोने और उदास होने के लिए बना दी जाएगी
मेरी माँ!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
काम की बात
कविता
साहित्यिक आलेख
सांस्कृतिक आलेख
सामाजिक आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं