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गीता हमारी संस्कृति है

आज गीता जयंती है और गीता पर कुछ भी लिखते हुए मेरे मन में यह बार-बार विचार आ रहा है कि गीता हमारी माता है। यह हमारे भीतर एक ऐसी बेहतर संस्कृति विकसित करती है जिसकी आज सर्वत्र माँग की जाती है। जिस तरह किसी बच्चे का पहला गुरु माँ होती है उसी तरह जो व्यक्ति गीता पढ़ लेगा उसे और कुछ पढ़ने, जानने, समझने और चिंतन करने की ज़रूरत नहीं है। गीता में जीवन के समस्त उपदेश भरे पड़े हैं और यदि हम मनोयोग पूर्वक इसे पढ़ते हैं तो हमारे जीवन की जितनी भी समस्याएँ हैं उनका समाधान पल भर में हो सकता है। गीता का पहला श्लोक—

"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।” 

कुरुक्षेत्र के मैदान में श्री कृष्ण के द्वारा किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन के लिए यह उपदेश महज़ अर्जुन का उपदेश नहीं है बल्कि धर्म और कर्तव्य के पथ पर ले चलने का सारस्वत उपदेश है। ऐसा नहीं है कि अर्जुन को अपने धर्म और कर्तव्य का पता नहीं था, ऐसा भी नहीं है कि अर्जुन युद्ध के मैदान में कायर और कमज़ोर बने रहने वाले धनुर्धर थे, लेकिन एक साधारण व्यक्ति के मन में चलने वाला संदेह और किंकर्तव्यविमूढ़ता की भावना धनुर्धर अर्जुन के मन में घर कर गई थी। सच्चाई यह है कि श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देने के बहाने भारतीय धर्म अध्यात्म और संस्कृति के एक एक पन्ने को खोल कर सामने रख दिया कि यह उपदेश सबके लिए है—भारत वासियों के लिए भी और अन्य देशवासियों के लिए भी। चाहे वह व्यक्ति किसी भी जाति और धर्म से संबंधित हो। व्यक्ति को अपने कर्तव्य और धर्म का ज्ञान होना चाहिए और साथ ही साथ उसे अपने कर्म के प्रति सदैव अनुशासित और कर्तव्यनिष्ठ बने रहने की ज़रूरत है। इसीलिए तो उन्होंने एक स्वर से सबके लिए कह दिया—"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"—अर्थात्‌ हमें केवल कर्म करने का ही अधिकार है उसके फल की ओर देखने का नहीं। कारण, उनकी दृष्टि में कर्म ही धर्म है और धर्म ही कर्म। क्योंकि हम प्रतिफल कर्म करते रहते हैं और कर्म के बग़ैर तो रह ही नहीं सकते। हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण किसी ने किसी कर्म से अथवा किसी न किसी कर्तव्य से जुड़ा हुआ रहता है। बचपन से लेकर जीवन के अवसानकाल तक हम कुछ ना कुछ करते रहते हैं, अपने लिए, दूसरों के लिए, धर्म के लिए, अधर्म के लिए, स्वार्थ के लिए, परमार्थ के लिए, पैसे की आमदनी के लिए अथवा ऊँची योग्यता बढ़ाने के लिए अथवा नौकरी करने के लिए, येन-केन प्रकारेण रूप से हम अपने लिए निरंतर कर्म करते हैं, निरंतर आगे बढ़ते हैं। मतलब यह कि कर्म के बग़ैर हमारा जीवन एक क्षण भी नहीं चल सकता है। तुलसी ने इसीलिए लिख दिया—

“कर्म प्रधान विश्व करि राखा। 
जो जस करहिं सो तस फल चाखा॥”

सच्चाई यह है कि हमें अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए। गीता में उन्होंने “विधानोक्त कर्म”की बात कही है। क्योंकि शास्त्र में बताए गए कर्म ही हमें सच्चा सुख और आनंद प्रदान करते हैं। 

अर्जुन ने जब युद्ध करने से मना कर दिया तब श्री कृष्ण ने अंत में एक ही बात कही-यदि तुमने युद्ध जीत लिया तो धरती पर राज करोगे और राज्य का सुख भागोगे लेकिन यदि युद्ध में मारे गए तो तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी। इसलिए तुम्हें तो कर्म करना ही होगा। हमारे जीवन में भी प्रायः अक़्सर ऐसी परिस्थितियाँ आ ही जाती हैं जब हम द्वंद्व में उलझ जाते हैं और यह पता नहीं चलता कि हमारा आगे का मार्ग क्या होना चाहिए? अर्जुन की तरह इस संसार का हर व्यक्ति परेशान, हताश, उदास, निराश और तनावग्रस्त है। सच पूछा जाए तो यह गीता महौषधि है जिसका एक-एक शब्द हमें बताता है, हर पल हमारा निर्माण करता है, पग-पग पर हमारा मार्गप्रदर्शन करता है। 

आज विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हम काफ़ी आगे बढ़ चुके हैं लेकिन हमारा अध्यात्म और हमारी सांस्कृतिक चेतना हमारा निर्माण कर रही है। गीता के उपदेश हमें नित नए चिंतन और विचार से प्रबुद्ध बना रहे हैं। हम किसी भी क्षेत्र की बात करें तो हमारे भीतर कर्तव्य और कर्म का गीता पाठ गीता के उपदेशों से ही प्राप्त हो सकता है। 

गीता ने ही हमें सात्विक, राजसी और तामसी आहार-विहार में फ़र्क़ करना सिखलाया और यह बतलाया कि आयु, बुद्धि, बल और आरोग्य को बढ़ाने वाला भोजन ही करना चाहिए। क्योंकि इसी तरह के भोजन से व्यक्ति सदैव सुखी और प्रसन्न रह सकता है। उन्होंने इसी तरह राजसी भोजन और तामसी भोजन की व्याख्या प्रस्तुत की और बताया कि भोजन का प्रभाव हमारे मन और तन दोनों पर ही पड़ता है। कहा भी गया है “जैसा खाए अन्न, वैसा होगा मन”। मेहनत और ईमानदारी के साथ कमाया गया धन सदैव सुख प्रदान करता है इसके ठीक विपरीत भ्रष्टाचार और बेईमान से अर्जित धन से कभी सुख नहीं प्राप्त हो सकता है। यदि हमें अपने जीवन को बचाना है, अपने परिवार को बचाना है, अपने समाज को बचाना है और अपने राष्ट्र को बचाना है तो हमारे भीतर गीता का उपदेश भरा हुआ होना चाहिए। गीता केवल साधु और संतों का ग्रंथ नहीं है, गीता केवल मंदिर में रखे जाने योग्य ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि वह घर-घर में रखा जाने योग्य ग्रंथ है। सचमुच में गीता हमारी रक्षा करती है। अनेक दोषों से बचाती है। हमारे भीतर के दुर्गुणों को दूर करती हुई सद्गुणों की अभिवृद्धि भी करती है। हमें आज और अभी संकल्प लेना होगा कि कि हम गीता में वर्णित उपदेशों का अहर्निश पालन करें और अपने बच्चों में भी गीता पढ़ने की आदत डालें। 

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