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है इश्क़ अब ताजिराना कैसा 

 

121  22      121  22 
 
है इश्क़ अब ताजिराना कैसा 
बदल गया है ज़माना कैसा
 
ये ज़िंदगी है उधार की तो 
किसी को अपना बनाना कैसा
 
अगर न आए तुम्हीं इधर तो 
ज़माने भर को  बुलाना कैसा
 
उन्हें ये ज़िद है कि मुस्कराओ 
बिना ख़ुशी मुस्कुराना कैसा
 
जो  हाल अपना सुना न पाए 
इधर उधर की सुनाना कैसा 
 
सजाओ गुलशन ख़िज़ाओं में भी 
बहार में गुल खिलाना कैसा
 
अभी अंधेरे हैं बस्तियों में
नज़र पे चश्मा लगाना कैसा
 
न हो अगर इख़्तियार ख़ुद पर
किसी पे हक़ मालिकाना कैसा
 
है ये लड़ाई अना की केवल 
इसे बढ़ाना घटाना कैसा
 
ये दिल सँभलने में ही न आया 
लगाया तुमने निशाना कैसा

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टिप्पणियाँ

नीरा कांकडा 2023/04/27 02:51 PM

वाह वाह क्या खूब कहा है हुजूर

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