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जन्म पत्रिका और संतान

 

ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शान्ति करा भवंतु॥

(ब्रह्मा, विष्णु और भगवान शिव, सूर्य, चंद्रमा, भूमि सुत यानी मंगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनि राहु और केतु सभी ग्रहों की शान्ति करें और हमारी रक्षा करें)

क्या जातक को संतान की प्राप्ति होगी?

व्यक्ति को संतान सुख प्राप्त होगा अथवा नहीं आज के समय में यह एक यक्ष प्रश्न है। हम सभी जानते हैं कि शिशु की उत्पत्ति न केवल दंपती अपितु समस्त परिवार और कुटुंब के लिए ख़ुशी का अवसर होता है। एक ओर जहाँ संतान परिवार को, कुटुंब को आगे बढ़ाती है वहीं दूसरी ओर यही संतान समाज और राष्ट्रहित में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हित में कार्य करते हुए राष्ट्रधर्म निभाती है।

भारतीय वैदिक ज्योतिष के माध्यम बेहद ही आसानी से जातक की जन्मपत्रिका का अध्ययन कर संतान के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। तो आइए जानने का प्रयास करते हैं किस प्रकार से जातक के जन्म पत्रिका का अध्ययन कर संतान के विषय में बताया जा सकता है।

जन्म पत्रिका के पंचम भाव से संतति का विचार किया जाता है। जन्म कुंडली का धर्म त्रिकोण का यह भाव सुत भाव या संतान भाव भी कहलाता है। जन्मपत्री में किसी भी विषय पर विचार करने के पूर्व उस पत्रिका के लग्न, सूर्य और चंद्रमा पर विचार किया जाना उचित प्रतीत होता है। स्वास्थ्य संतति की प्राप्ति के लिए जातक के तन और मन दोनों का ही स्वस्थ होना अति आवश्यक है। जन्मपत्रिका में लग्न से जातक के तन अर्थात्‌ शरीर का विचार किया जाता है। लग्न भाव का कारक सूर्य पिता और आत्मा को निरूपित करता है। काल पुरुष की जन्म पत्रिका में सूर्य पंचम भाव का स्वामी है। स्वस्थ शरीर के लिए लग्न भाव और लग्नेश का बली होना आवश्यक है। चंद्रमा मन का कारक माना गया है। मन का स्वस्थ होना भी संतति के लिए उतना ही आवश्यक है जितना तन का। लग्न, लग्नेश, सूर्य और चंद्र को देखने के उपरांत पंचम भाव का अध्ययन किया जाना चाहिए। संतति की प्राप्ति के लिए तीन प्रमुख बिंदुओं पर विचार किया जाता है:

  1. पंचम भाव

  2. पंचम से पंचम अर्थात्‌ नवम भाव

  3. कारक ग्रह बृहस्पति से पंचम

आईए अब क्रम से इन बिंदुओं की विवेचना करने का प्रयास करते हैं।

(1) पंचम भाव का अध्ययन

किसी भी भाव का अध्ययन मुख्यतः तीन बिंदुओं के अंतर्गत किया जाता है और वे हैं भाव, भावेश और कारक। अतः सबसे पहले यह देखेंगे कि पंचम भाव किस राशि में स्थित है, उस राशि के गुण धर्म क्या हैं और वह किस प्रकार से पंचम को प्रभावित कर रही है। इसी क्रम में पंचम भाव पर विभिन्न ग्रहों के प्रभाव को देखते हैं। संतान योग के लिए पंचम भाव का शुभ प्रभाव में होना आवश्यक है। शुभ कर्तरी, शुभ ग्रहों की स्थिति, शुभ ग्रहों की दृष्टि इत्यादि पंचम को बलवान बनाती हैं। लग्न से पंचम भाव के साथ-साथ चंद्रमा से भी पंचम भाव का अध्ययन किया जाना चाहिए। पंचम भाव पर विचार कर लेने के पश्चात अब पंचम भाव के स्वामी अर्थात्‌ पंचमेश को देखा जाता है। यहाँ पंचमेश की स्थिति और इस पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया किया जाता है। सबसे पहले यह देखा जाता है कि पंचमेश किस राशि में स्थित है, उस राशि के गुण धर्म क्या हैं और वह किस प्रकार से पंचमेश को प्रभावित कर रही है। क्या पंचमेश केंद्र या त्रिकोण में स्थित है? या त्रिक भाव में अर्थात्‌ जन्मपत्रिका के षष्ठम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में। पंचम भाव के स्वामी के शुभ स्थिति और प्रभाव जातक की संतति में सकारात्मक भूमिका निभाती है। पंचमेश का अध्ययन भी लग्न और चंद्रमा दोनों से किया जाना चाहिए। तीसरे क्रम में पंचम के कारक बृहस्पति देव की स्थिति और प्रभाव का अध्ययन किया जाता है। अर्थात्‌ जातक की जन्मपत्रिका में गुरु की स्थिति क्या है और वह किस भाव में विराजमान है। साथ ही कारक ग्रह बृहस्पति देव पर दृष्टि, युति, कर्तरी किस प्रकार का सम्बन्ध है।

जन्मपत्रिका का पंचम भाव पूर्वार्जित कर्मों का स्थान या पूर्व जन्मों से प्राप्त होने वाले पुण्य का स्थान भी बताया गया है। संतान की प्राप्ति पूर्ण रूप से पूर्व जन्म के कर्मों का प्रताप माना जाता है। और इसे समझने की सामर्थ्य केवल ज्योतिष में ही है। पंचम भाव को पुण्य स्थान भी कहा जाता है अर्थात्‌ समग्र रूप से समस्त पूर्व जन्म के पुण्य कर्मों का संचित स्थान। इस प्रकार हम कह सकते हैं की पंचम भाव के फल प्राप्त करने के लिए हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों का अच्छा होने अनिवार्य है।

हम सभी जानते हैं कि हमारे जीवन में प्रत्येक शुभ कार्य के लिए बृहस्पति देव का आशीर्वाद आवश्यक है। देव गुरु बृहस्पति के आशीष के बिना संतान प्राप्ति सम्भव नहीं है। पंचम भाव का अध्ययन जन्म लग्न और चंद्र लग्न दोनों से ही किया जाना चाहिए।

(2) पंचम से पंचम अर्थात्‌ नवम का अध्ययन

पंचम भाव से विवेचना के आधार पर यदि संतान होने के संकेत प्राप्त हो जाते हैं तो अच्छी बात है अन्यथा ज्योतिष शास्त्र के एक प्रमुख सूत्र भावात भावम का उपयोग करते हुए पंचम से पंचम अर्थात्‌ नवम भाव का अध्ययन करते हुए जातक के जन्म कुंडली में संतान योग का पता लगाया जाता है। जिस प्रकार भाव, भावेश और कारक का अध्ययन कर हम पंचम भाव से किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास कर रहे थे, ठीक उसी प्रकार यहाँ हम अब नवम भाव से उसी प्रक्रिया का अनुसरण करेंगे। नवम भाव का अध्ययन हम वहाँ स्थित राशि और उनके गुण स्वरूप, नवम भाव में स्थित ग्रह और ग्रहों के प्रभाव के आधार पर करेंगे। नवम भाव के स्वामी अर्थात्‌ नवमेश का उसकी स्थिति और प्रभाव के आधार पर आकलन करते हैं और अंत में संतान का कारक ग्रह बृहस्पति देव का स्थिति और प्रभाव के आधार पर अध्ययन किया जाता है। अब यदि नवम भाव, नवमेश अथवा कारक के माध्यम से संतान होने के योग के विषय में सकारात्मक जानकारी मिलती है तब उस स्थिति में जातक की पत्रिका में संतान का योग बनता हुआ बताया जाना चाहिए।

(3) कारक बृहस्पति से पंचम

पंचम और नवम भाव का अध्ययन करने के उपरांत भी यदि हमें दोनों ही भाव जातक की जन्मपत्रिका से संतान बाबत कोई भी संभावनाएँ प्रकट नहीं करते हैं तब उस स्थिति में एक अंतिम सूत्र के रूप में कारक बृहस्पति की स्थिति से पंचम का सूक्ष्मता के साथ अध्ययन आवश्यक है। हम जानते हैं की संतान का कारक बृहस्पति हैं। बृहस्पति की स्थिति से पंचम अर्थात्‌ बृहस्पति जिस भाव में स्थित है उससे पाँचवें भाव का अध्ययन बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ संतान हेतु जातक की जन्म पत्रिका में किया जाना चाहिए। इस भाव में पड़ने वाली राशि और ग्रहों के सम्मिलित प्रभाव के आधार पर संतान का पक्ष देखा जाता है।

इस प्रकार पंचम भाव से सबसे पहले हमने संतान के होने की संभावनाओं को देखा। संतान प्राप्ति में हमारे पूर्व जन्म के पुण्य कर्मों का बहुत बड़ा योगदान होता है। यहाँ से किसी भी प्रकार का परिणाम न प्राप्त होने की स्थिति में हमने नवम भाव का अध्ययन किया। नवम भाव, पंचम से पंचम होने के साथ वर्तमान जीवन के पुण्य कर्म अर्थात्‌ भाग्य और धर्म का स्थान है। नवम भाव से भी संतान के विषय में किसी भी प्रकार के सकारात्मक परिणाम दिखाई ना देने की स्थिति में हमने संतान के कारक देव गुरु बृहस्पति की स्थिति और इससे पंच एम भाव का अध्ययन किया। हम जानते हैं कि किसी भी प्रकार के शुभ कार्य में देवगुरु बृहस्पति का आशीर्वाद अवश्यंभावी है। उनके आशीर्वाद के बिना कोई शुभ परिणाम की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अब प्रश्न यह उठता है कि इन तीनों के अध्ययन के उपरांत भी हमें यदि किसी भी प्रकार से संतान होने की संभावनाएँ नहीं दिखाई पड़ती हैं तो जातक को यह कहा जाना चाहिएकि उनकी पत्रिका में संतान की संभावनाएँ नगण्य हैं। अर्थात्‌ संतान का योग नहीं है। इसके विपरीत यदि जन्म पत्रिका के पंचम भाव, नवम भाव और कारक बृहस्पति देव में से किसी भी एक से यदि हमें सकारात्मक परिणाम दिखाई पड़ते हैं तो निश्चित रूप से जातक को संतान के विषय में सकारात्मक परिणाम बताने चाहिए। अर्थात्‌ हम कह सकते हैं कि जातक के पत्रिका में संतान का योग है। यहाँ एक तथ्य पर और ध्यान देने की आवश्यकता है यदि जन्मपत्रिका में इन तीनों बिंदुओं के अध्ययन करने के उपरांत भी संतान के होने का योग नहीं बनता है तो हमें इसके आगे अध्ययन करने की क़तई आवश्यकता नहीं है। इसके पश्चात हमारा सप्तांश चार्ट, नवांश पत्रिका, बीज स्फुट, क्षेत्र स्फुट, पुत्र सहम, दशाओं पर विचार आ इत्यादि का अध्ययन निरर्थक हो जाता है।

सुलभ संदर्भ हेतु संतान प्राप्ति के लिए के लिए कुछ ज्योतिषीय सूत्र निम्न अनुसार है:

  1. पंचम भाव शुभ ग्रहों से दृष्ट होने के साथ-साथ पंचमेश की शुभ ग्रहों से युति।

  2. पंचम भाव, पंचमेश और बृहस्पति पर पड़ने वाले शुभ अशुभ दृष्टि।

  3. लग्नेश पंचमेश और बृहस्पति का बल।

  4. पंचमेश होकर बृहस्पति का बल।

  5. पंचमेश होकर बृहस्पति, नवमेश की सप्तम में युति के साथ यदि द्वितीयेश लगनस्थ हो तो संतान का प्रबल योग बनता है।

  6. लग्नेश और पंचमेश केन्द्रगत हों और द्वितीयेश का बल, इत्यादि।

इस प्रकार हम ज्योतिष के मूलभूत सिद्धांतों का उपयोग करते हुए जातक के संतान के योग के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। भारतीय ज्योतिष में एक ओर जहाँ लग्न, सूर्य और चंद्र के बलाबल का सार्थक प्रयोग किया गया है वहीं दूसरी ओर पंचम भाव से पूर्व जन्मों के संचित पुण्यकर्म लेकर और नवम भाव से वर्तमान जन्म के पुण्य कर्म लेकर संतान के साथ उसको संयोजित कर संतति प्राप्ति के योग को स्पष्ट किया गया है।

गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।

वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत॥

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