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माँ का अक्स


माँ, अब मैं बड़ा हो गया हूँ, 
अपने पैरों पर खड़ा हो गया हूँ
अब तो यूँ सताना छोड़, 
क्या करना है-क्या नहीं ये बताना छोड़
पता है मुझको इस दुनिया 
की हर एक ऊँच-नीच
अब न यूँ हाथ पकड़, 
न मुझे यूँ अपनी ओर खींच
बस, दूर खड़ी रहकर देख मेरा हुनर
और, अपने आशीषों से 
मेरे रोम-रोम को सींच। 
 
पर, हाय! क्या पता था कि माँ 
मेरी बनाई हुई ये दूरी सह न पाएगी
बहुत कुछ कहना चाहते हुए भी, 
कुछ कह न पायेगी। 
हाँ, मैं ही अचानक बहुत बड़ा हो गया था; 
मेरे अपने लोग थे, मेरी जवानी थी 
पर समझ न सका कि मेरे बिना 
माँ के लिए ये सारी दुनिया बेगानी थी। 
बहुत कुछ कहना चाह कर भी शायद, 
वो कुछ कह न सकी
हाँ, पर मेरी बेरुख़ी सह कर, 
वह इस दुनिया में एक पल भी और रह न सकी
अपने अंतिम पलों में कुछ कहना चाह कर भी, 
बस मेरी ख़ुशी के लिए
शायद वो मुझसे कुछ कह न सकी, 
शायद वो मुझसे कुछ कह न सकी! 
 
पर माँ, अब मैं इससे ज़्यादा और 
कुछ सह सकता नहीं
तुझसे कुछ कहे बिना, तुझसे कुछ सुने बिना अब 
एक और पल भी रह सकता नहीं
माँ, बस एक बार लौट आ, मुझे माफ़ कर दे; 
कह दे-कह दे, बस एक बार कह दे
कि मैं न इतना बड़ा हुआ हूँ, 
और न हो सकूँगा कभी
कि तेरे आँचल की छाँव से बाहर 
चैन से सो सकूँगा कभी
माँ, तेरे बिना मैं बस एक ज़िन्दा लाश हूँ 
अपनेपन से दूर, अपने अदनेपन का
बस एक निर्जीव एहसास हूँ, 
बस एक निर्जीव एहसास हूँ। 

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