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अश्वमेध यज्ञ

 

अश्वमेध का यज्ञ अधूरा, प्रण है अधूरा, रण है अधूरा
ज्ञान-पिपासा शांत न हो, तब तक जीवन-दर्शन है अधूरा
अश्वमेध निज-प्रण को करलो, मानवता हित रण हो पूरा
मंज़िल जब तक क़दम न चूमे, जीवन का संघर्ष अधूरा
 
मानव-जीवन कुन्दन करने, चन्दन हर अभिलाषा कर लो
हवन-अग्नि की द्वाभा पाने, शीतल हर जिज्ञासा कर लो
जीवन-कस्तूरी पाने हित, कुंडलि को उद्भासित कर लो
परमसत्य को पाने हित अब, अन्तर्मन आह्लादित कर लो
 
किन्तु कहाँ यह सब पाएँ हम, समय बड़ा प्रतिकूल बना रे
अश्वसेन हर शिखा विराजे, वाणी में विष-व्याल समाया
हर रिश्ता हर नाता अब तो, चौरस का बाज़ार बना रे
गीता की चौपाई भूले, रणभेरी का स्वर है समाया
 
भाईचारा बिसरा पीछे, वैमनस्य का ज्वर है समाया
भजन-कीर्तन ख़्वाब बने अब, आर्त्तनाद का स्वर है समाया
परहित जीवन हृस्व बनाने, दहक उठे इक अंतर्ज्वाला
ग़ैरों को निज बंधु बनाने खोलो अपने मन का द्वारा
 
अश्वमेध का यज्ञ अधूरा, प्रण है अधूरा, रण है अधूरा . . .!

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