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ग़रीब की बेटी

 

फिर नज़र आई मुझे चिंदी लगी कुर्ती और 
सिकुड़न भरी मैली सलवार में लिपटी 
वह ग़रीब की बेटी
फिर नज़र आई मुझे समाज के दरिंदों से, 
चील, कौओं और गिद्धों से 
स्वयं को बचाने का असफ़ल प्रयास करती
वह ग़रीब की बेटी
फिर नज़र आई मुझे नदारदगी 
समाज के उन सफ़ेदपोश-सभ्य ठेकोदारों की 
जो मौन हो जाते हैं हर दफ़ा
और फिर से, बेसहारा लहुलुहान होती है 
एक और बार 
वह ग़रीब की बेटी
फिर नज़र आई मुझे 
वो खोखले और अपंग समाज की 
सभ्यतारूपी बैसाखियाँ जो हर बार 
मौन हो सहने पर मजबूर करती हैं 
और हर बार तार-तार आबरू लिए रह जाती है 
वह ग़रीब की बेटी 
फिर नज़र आई मुझे लाचारी 
उन तमाम ग़रीब की बेटियों की, जिनकी
न कोई जाति है, न धर्म; 
है तो बस इतना सा डर कि 
कहीं एक बार फिर से मुड़ न जाए 
समाज के तंज़रूपी बाणों की दिशा 
उनकी ओर अनायास और कर दे उनके
कभी न भर सकने वाले घावों को 
और अधिक लहुलुहान; 
बार-बार पूछकर वही असभ्य प्रश्न
‘ये किसका पाप है?’ 
फिर नज़र आई मुझे वो लाचारी 
उस अर्थहीन प्रश्न पर रोकर घुटने की, 
मौन हो रहने की
जो कभी मर्द के हिस्से में है क्यों कर आता नहीं! 
जो कभी उससे क्यों कर पूछा जाता नहीं! 
फिर नज़र आई मुझे इक ज़रूरत 
अश्फ़ाकउल्लाह, भगत सिंह और चन्द्रशेखर की
जो अपनी आँखों के लाल डोरों, 
अपने चट्टानी हौसलों और 
बमतुल-बुखारे की गरज से 
कर सके शांत हमेशा के लिए
‘इस मायूस लाचारी को; 
जो ग़रीब है, असहाय है और 
अपने आप में सिमटी एक ज़िन्दा लाश है’ 
जो कर सकें फिर से मुक्त एक बार 
इन चहकती चिड़ियाओं को 
उन तमाम दरिंदों से जो 
हमारी चिर-स्थाई कायरता को 
हथियार बनाकर 
हर पल-प्रतिपल खेल रहे हैं 
हैवानियत का एकतरफ़ा खेल 
फिर नज़र आए मुझे हर घर, 
हर आँगन में चहकती
खुले गगन में उड़ान भरने को, 
समाज में बेखौफ़ टहलती
वह ग़रीब की बेटी॥

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