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सौ सुनार की एक लोहार की

“रोटी है या दरी, यह गरम मसाले वाला मिक्सी का सब्ज़ी मुझे फूटी आँख नहीं सुहाता, सिलबट्टे पर पीस कर सरसों का मसाला वाला सब्ज़ी बनाया करो। जानवरों की तरह सानी बोझ कर रख देती हो।” 

नटराजन की पत्नी एम. ए. पास है। उसका ऑफ़िस का भी काम सँभाल देती है। पर ’अँगूठा छाप!! कक्का जी कहीन’ ने पत्नी पर रौब जमाया। 
कक्का जी मछली के शौक़ीन थे। सप्ताह में पाँच दिन उन्हें मछली चाहिए। भले दो ही टुकड़ा, लेकिन मछली होनी ज़रूर चाहिए। 

शायद इन दिनों थोड़ी तबीयत भी अच्छी नहीं थी। बीवी ने मछली बनाई। कक्का जी को अच्छा नहीं लगी। वह बोले अब से मछली लाना ही छोड़ दूँगा। 

उनके कार्यालय में एक बंगाली किरानी काम करता था। कक्का जी का काफ़ी दबदबा था। एक बार कक्का जी ने कर्मचारी से कहा, “सरकार तुम्हारी बीवी मछली बड़ा अच्छा बनाती है। मैं कच्ची मछली ख़रीद कर दूँगा बनवा कर दे देना।” 

बंगाली ज़ायक़ा लाजवाब था। काका जी ने एक दो तीन-चार-बार बाज़ार से मछली ख़रीदी और कर्मचारी की पत्नी को बनाने के लिए दे दी। 

कर्मचारी की पत्नी भी ऊब गई और पाँचवीं बार उसने बग़ैर तले, उबालकर बेस्वाद मछली बना कर दे दी। 

कक्का जी ने आवाज़ देकर पत्नी को बुलाया, “भाग्यवान! इनकी मछली में कोई स्वाद नहीं होता। बहुत दिन हो गए तुम्हारे हाथ के सरसों के मसाले वाली मछली खाए। अब से तुम ही बनाना।”

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