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तुम से ही मैं

 

तुम्हारे अंदर मैं हूँ मेरा व्यक्तित्व
जीवन जी रहा 
मैं ही तुम्हारे पराक्रम के गीत को 
नित नए स्वर दे रहा
मैं भी कुछ हूँ मुझे भी सम्मान दो
मैं ही तुम्हारे प्रपंच को भी 
यदा-कदा उजागर कर रहा 
 
जो मैं दिवंगत हो गया
चिता की राख में सो गया तो
तुम्हारे मन की मंजूषा में 
यदि याद बन के रह गया तो
कौन गुनगुनाएगा 
तुम्हारी कविता के छंद
 
इसीलिए तो अर्जुन
महाभारत नहीं था चाहता
यदि कौरव नहीं तो 
किसके लिए भला कवि
महिमा के गीत को बखानता। 
 
विजय के शंखनाद के स्वर
कौरव सहित ही सार्थक
जो कौरवों के कान में
ना घुल सके वो कैसी दुंदुभी
कौरव बिना विजयश्री वैसी
जैसे स्वाद रहित हो ज़िन्दगी। 
इसीलिए तुमसे ही मैं और
मुझमें ही शामिल है तेरी बंदगी

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