अनवरत - क्रांति
काव्य साहित्य | कविता वेदित कुमार धीरज1 Nov 2019
अशर्फ़ियों का लालच
हुक्मरानों में जब भी बढ़ा
हुकूमत ज़ुल्म ढाती है
बेढंगे क़ानून बनाये जाते हैं
आवाज़ें दबायी जाती हैं
उम्मीदें कुचली जाती हैं
ग़रीब, ज़्यादा ग़रीब होने लगता है
किसान खेतों से भूख उगाता है
मासूमों के हक़ छीन लिए जाते हैं
माहौल मे संप्रदाय का ज़हर भर दिया जाता है
तब विरोध होता है
जेलें भरी जाती हैं
मासूम मारे जाते हैं
पैबंद पुलिस गोलियों से बात करती है
जनता भूख की क़तारों में खड़ी रहती है
उम्मीद में कि उनका जो आक़ा है
उसका दिल पसीज जाये
फिर भी नहीं होता
एक तरफ़ भूख उज्जवल दिवा-सपने देखती है
और फिर
अपनों को खोती है
सपने तोड़ दिए जाते हैं
आवाज़ें दबा दी जाती हैं
जैसे राख से ढंक दिया हो दहकते लावे को
निराशा से भर जाता है परिवार
चिराग़ बुझने लगता है
फिर कोई हवा का झोंका उठता है
उन्हीं मासूमों की आह से
और फिर
बिछायी राख
उड़ने लगती है
देखते ही देखते सारा मजमा दहकने लगता है
हुक्मरानों की चौबंद व्यवस्था ढहने लगती है
जनता की क्षुधा की आग
उनके दिमाग़ पर छा जाती है
फिर क्रांति होती है. . . क्रांति
क्रांति!
सारी चौबंद ढा दिए जाते हैं
हुक्मरान ख़त्म होते हैं
उन्हें भी अविलम्ब मुक्त कर देती है जनता
फिर एक बड़ा शून्य छाता है
उम्मीद फिर जनता के बीच से
एक नया नेता चुनती है
जो नए सपने दिखाता है
सत्ता सँभलती है
और फिर
इतिहास फिर स्वयं को दुहराता है
अशर्फ़ियाँ फिर चमकती हैं
हुक्मरानों की लारें फिर टपकती हैं
फिर यही व्यवस्था ज़ाहिल होने लगती है
एक अनवरत क्रम चलता है
और इस चक्रण में
हर बार
बस वही मासूम पिसते रहते हैं
कभी भूख की भेंट
कभी सत्ता की भेंट
और फिर
आख़िर क्रांति- भेंट
चढ़ते हैं इस
अनवरत चक्रण में
हर बार
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