जीवन का यथार्थ (नवल किशोर)
काव्य साहित्य | कविता नवल किशोर कुमार3 May 2012
यथार्थ और कल्पना के,
बीच के राहों से जब गुज़रा,
तब जाना मैंने,
ज़िन्दगी का तात्पर्य क्या है,
इसका मकसद क्या है।
पहले जब बचपन की,
कच्ची लेकिन सच्ची और,
अमिट अनुभूतियों से मिला था,
तब जाना था मैंने,
प्रकृति का सौंदर्य क्या है,
इसकी मिठास क्या है।
निकल बचपन की,
ठंडी छाँव से,
जब साक्षात्कार हुआ मेरा,
भौतिकता की मनमोहिनी घूप से,
तब जाना था मैंने,
मोह और माया क्या है,
इसका स्वरूप क्या है।
सबको देखा, सबको समझा,
पहुँचा जब यथार्थ के इस पार,
तब जाना था मैंने,
जीवन में इतनी खाई क्यों है,
इसकी गहराई क्या है।
जग झूठा है या सच्चा है,
मगर यह यर्थाथ नहीं,
मिला जब मुश्किलों से प्रथम बार,
तब जाना था मैंने,
जीवन में रोटी क्या है,
इसकी कीमत क्या है।
जीवन की सांध्य बेला में,
जब चंद साँसें हैं शेष,
निज तन पर,
भिनभिनाती मक्खियों को देख,
जाना मैंने,
जीवन की सच्चाई क्या है,
इसका अंजाम क्या है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अब नहीं देखता ख़्वाब मैं रातों को
- अब भी मेरे हो तुम
- एक नया जोश जगायें हम
- कोशिश (नवल किशोर)
- खंडहर हो चुके अपने अतीत के पिछवाड़े से
- गरीबों का नया साल
- चुनौती
- चूहे
- जीवन का यथार्थ (नवल किशोर)
- जीवन मेरा सजीव है प्रिये
- नसों में जब बहती है
- नागफनी
- बारिश (नवल किशोर कुमार)
- बीती रात के सपने
- बैरी हवा
- मानव (नवल किशोर)
- मैं लेखक हूँ
- मोक्ष का रहस्य
- ये कौन दे रहा है यूँ दस्तक
- रोटी, कपड़ा और मकान
- वक़्त को रोक लो तुम
- शून्यता के राह पर
- सुनहरी धूप (नवल किशोर)
- सूखे पत्ते
- स्वर्ग की तलाश
- हे धर्मराज, मेरी गुहार सुनो
- क़िस्मत (नवल किशोर)
- ख़्वाहिशें (नवल किशोर)
ललित निबन्ध
सामाजिक आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं