ख़्वाहिशें (नवल किशोर)
काव्य साहित्य | कविता नवल किशोर कुमार3 May 2012
तन कठोर और हृदय में,
कोमलता का अंबार लिये।
बचपन छोड़ मध्य मझधार में,
नव यौवन का अहसास लिए।
देखते हैं लोग उसे अक्सर ही,
कामेच्छा का निज स्वार्थ लिए।
उसके उरोजों का उभार देखते,
हैवानियत का स्वरूप लिए।
देखती है वह सपने अनेक,
कभी तो वह दुल्हन बनेगी।
अपनी पर्णकुटीर महल में,
नित नये अरमान सजाएगी।
काश वह भी सीता होती,
कोई जनक उसे भी अपनाता।
उसके भी होते अपने राम,
जो आजीवन उसे निबाहता।
जाने नियति कहाँ ले जायेगी,
समाज कहाँ उसे ले जायेगा।
क्या भविष्य उस निर्धन का,
भगवान उसे क्या दे पायेगा।
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