पिता हो तुम
काव्य साहित्य | कविता पूनम चन्द्रा ’मनु’1 Jan 2021
गर्मी की दोपहर में
जल कर जो साया दे
वो दरख़्त हो
बच्चों की किताबों में
जो अपना बचपन ढूँढ़े
वो “उस्ताद” हो तुम
पिता हो तुम . . . पिता हो . . .
दुनिया से लड़ने का . . .
रगों में ख़ून बन कर बहने का
“जज़्बा” तुम हो . . .
अपने खिलौनों को
हर वक़्त तराशने के लिए . . .
हाथों में गीली मिट्टी लिए रहता है
वो “कुम्हार” हो तुम
पिता हो तुम . . . पिता हो . . .
अपने अधूरे ख़्वाबों को पूरा जीने के लिए . . .
ख़ुद की नींद को . . .बाँध कर जो फेंक दे
वो “हौसला” . . . तुम हो
पिता हो तुम . . . पिता हो . . .
ख़ुद से भी ज़्यादा ऊँचाई से देख पायें . . .
इस दुनिया को . . .
इसलिए बच्चो को कांधों पर लिए फिरते हो
आने वाले कल की नींव रखने वाले
“कारिंदे” हो तुम . . .
पिता हो तुम . . .पिता हो . . .
गर . . .घर जन्नत है
तो उसका आस्मां तुम हो
पिता हो तुम . . .पिता हो . . .
किसी भी ख़ानदान की बुनियाद
सिर्फ़ तुम हो
. . .सिर्फ तुम!
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