आधार
काव्य साहित्य | कविता सविता अग्रवाल ‘सवि’29 Nov 2014
अस्थिर से कदम रखे थे
बचपन में जब पहली बार
माँ बापू तुम साथ खड़े थे
बन क़दमों के तुम आधार
पल-पल छिन-छिन दिन ढलते थे
क़दमों में तुम बल भरते थे
बाल्यवस्था गुज़री खेलों में
धमा चौकड़ी और मेलों में
यौवन की ऋतु फिर आयी
स्वप्न अनेकों ले आयी
जीवन क्षण-क्षण बीत रहा था
यौवन तिल-तिल रीत रहा था
जीवन के द्वारे पर बैठा
बूढा मन सब देख रहा था
दस्तक देकर मुझे उठाया
चेहरा भी अपना दिखलाया
कठिन डगर है आगे मंजिल
मुझको था उसने समझाया
बूढ़े मन की बात सुनी जब
मनवा मेरा कुछ घबराया
स्थिर कदम बने थे जो अब
अस्थिर सा उनको पाया
माँ बापू तुम साथ नहीं अब
किसको आधार बनाऊँ मैं
मुश्किल से उठते क़दमों से
कैसे अब चल पाऊँ मैं?
बाकी के दिन इस जीवन के
बिन आधार बिताऊँ मैं।
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