चुप
काव्य साहित्य | कविता सविता अग्रवाल ‘सवि’2 Aug 2016
आज मैंने अपनी चुप से कहा –
तू इतनी चुप-चुप क्यों रहती है?
अपने होंठों को क्यों सिये रहती है?
चुप मुझे शीशे के सामने ले आयी
और हल्की सी मुस्कान उसने
अपने होंठों पर बिखराई।
मैंने कहा केवल मुस्कराओ मत
कुछ बोलो और बतियाओ अब
"चुप" ने होंठ खोले और बोली
तुम ही तो कहती हो कम बोलो
ज़रूरत पड़ने पर ही मुँह खोलो
माँ ने यही शिक्षा दी है
उनकी आज्ञा का पालन ज़रूरी है
इसलिए चुप रहना मेरी मजबूरी है
जब भी मैंने चुप्पी तोड़ी है
तुमने मुझे फटकारा और कहा कि
"तू चुप नहीं रह सकती थी"
इसलिए मैं चुप रहती हूँ
अपना दुःख स्वयं सहती हूँ
चुप्पी से साधना होती है
प्रभु की आराधना होती है
"चुप" का तर्क मेरे मन को भाया
शीशे में अपना चेहरा देख
मैंने अपना मन बहलाया
अपनी चुप से चुपचाप ही
बातें करने और शिकवे दूर करने
का निश्चय बनाया
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