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आशियाना

 

ईंट-पत्थर से निर्मित इमारतें मकान कहलाती हैं। जो शहरों-महानगरों में कई-कई मीनारनुमा आकार ग्रहण किए हुए हैं लेकिन जिनमें लोग रहते हैं गृहस्थियाँ चलती हैं उन्हें घर कहते हैं। घर का कोई निश्चित आकार नहीं होता है। वह लोगों के आर्थिक सामर्थ्य पर निर्भर करता है जिस प्रकार समाज में लोगों के क़द अलग-अलग हैं वैसे ही नगरों में घरों के आकार भी। 

ऐसी ही एक कालोनी है विश्वास नगर। यहाँ के लोगों के क़द की तरह ही घरों के आकार भी भिन्न-भिन्न हैं, जिनकी ऊँचाई दुमंज़िला-तिमंज़िला है। ये नज़दीक से देखने पर घरों से अधिक मकान लगते हैं। कोई चहल-पहल नहीं बिल्कुल शांत। एकदम निर्जीव। यहीं है शेखर का घर जो दुमंज़िला-तिमंज़िला तो नहीं है, न ही उसकी दीवारें ईंट-पत्थर व सीमेंट से नहीं बनीं, क्योंकि इनका निर्माण शेखर की माँ द्वारा रेलवे ट्रैक से अपने सिर पर ढो-ढोकर लाई गई चिकनी मिट्टी को भूसे में लेपकर किया गया है। इन दीवारों में पक्की छत का बोझ उठाने की क्षमता नहीं थी इसलिए शेखर के पिता ने उस पर फूस की टट्टी छा दी थी। यह घर दूर से देखने पर वनवास के दौरान रह रहे सीता-राम की कुटिया-सा लगता है-—एकदम सजीव। हालाँकि नज़दीक से देखने पर लोगों को इससे घृणा होती थी। स्वयं को सभ्य और समृद्ध मानने वाले वे लोग कॉलोनी के आलीशान पक्के मकानों के बीच मुख्य चौराहे पर बने इस झोंपड़े को एक दाग़ मानते थे। उनके दृष्टिकोण के अनुसार मानो, चंद्रमा जैसी सुंदर कॉलोनी पर यह ग्रहण लग गया हो। 

शेखर दसवीं कक्षा का छात्र था। जो पढ़ने में तो होशियार था लेकिन पढ़ाई के लिए पाठ्य-पुस्तकों का उसके पास सदैव अभाव रहता था। पुस्तकों और कॉपियों की कमियों के कारण उसे अध्यापकों से आये दिन डाँट-फटकार पड़ती रहती थी, और कभी-कभी मार भी सहनी पड़ती थी लेकिन उसे बुरा नहीं लगता था क्योंकि अब तक वह इन सब का आदी जो हो चुका था। सच में ग़रीबी किसी श्राप से कम नहीं है, लेकिन दृढ़ निश्चय, आत्म विश्वास और कठोर परिश्रम से चट्टानों को निचोड़कर भी पानी निकाला जा सकता है। ऐसे मनुष्य असंभव समझे जाने वाले लक्ष्य को भी भेद सकते हैं। शेखर की छोटी बहन निशा भी उसी स्कूल में छठी कक्षा में पढ़ती थी। निशा भी इस ग़रीबी की मार से अनभिज्ञ न थी। किन्तु भारत सरकार के ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के नियमानुसार निशा को मुफ़्त में पाठ्य पुस्तकें व कॉपियाँ मिल जाती थीं। दोनों भाई-बहन बहुत मेहनती और कुशाग्र बुद्धि वाले थे। दिन-रात ख़ूब मन लगाकर पढ़ते थे। 

शेखर के पिता एक औसत क़द के व्यक्ति थे। उम्र लगभग पैंतालीस रही होगी। गाल पिचक गए थे। आँखें अंदर धँस गई थीं। जब अपनी बनियान उतारते तो छाती की हड्डियाँ बाँस की खपच्चियों जैसी दिखाई देती थीं। यह केवल उनका ही रूप नहीं है बल्कि सभी रिक्शा खींचने वालों की लगभग ऐसी ही तंदरुस्ती होती है। क़स्बे और नगरों की सड़कों पर रिक्शा खींचते ऐसे अनेक लोग आपको मिल जाएँगे। 

शेखर आज विद्यालय से लौटा तो अनमना-सा लगा। जान पड़ता था कि मस्तिष्क पर कोई भारी बोझा ढोता हुआ सीधा घर तक आया है। लेकिन अधिक देर तक इस बोझे को ढोने में वह समर्थ न रह सका तो उसके मुँह ने सारा बोझा उगल दिया। 

शेखर ने कहा, “स्कूल की फ़ीस भरनी है . . .” कमरे में कुछ क्षणों तक सन्नाटा पसर गया। 

शेखर के पिता स्वयं को संयत करते हुए बोले, “अंतिम तिथि कब है बेटा?” 

शेखर ने कहा, “पापा जी, सोमवार को ज़रूर देनी है। सभी लड़कों की जमा हो गई है, सिर्फ़ मेरी ही बची है। इसलिए मास्टर जी ने मुझे आज बहुत फटकार सुनाई।” 

शेखर के पिता हौसला बढ़ाया, “तू चिंता न कर बेटा। सोमवार तक ज़रूर कर देंगे फ़ीस जमा” 

“कहाँ से कर दोगे इसकी फ़ीस जमा। घर में एक फूटी कौड़ी भी नहीं है, जो थी वह सुबह तुम्हारे इलाज के ख़ातिर डॉक्टर ले गया,” इतनी देर से चुपचाप बैठी शेखर की माँ ने रोते हुए कहा। 

शेखर के पिता, “भाग्यवान तू रो मत आज ठीक हो जाऊँगा। वैसे भी कल तो इतवार है; कल थोड़े ही न जाएगा शेखर स्कूल। मैं कल रिक्शा चलाकर कमा लाऊँगा। जा एक गिलास पानी ले आ मेरा दवाई खाने का टैम हो गया है।” 

शेखर ने कहा, “पिताजी, मैं सोच रहा था कि तुम्हारी तबीयत भी अब ख़राब रहने लगी है। जब-तब बीमार हो जाते हो। कुछ दिनों से तुमको इतनी खाँसी है कि बलगम आता है। मतलब जब तक तुम ठीक नहीं हो जाते मैं पढ़ाई छोड़ दूँ।” 

“तू पढ़ाई छोड़ने की बात ज़ुबान पर कैसे लाया नालायक़। अभी मैं ज़िन्दा हूँ सिर्फ़ बीमार हुआ हूँ, मरा नहीं हूँ। ख़बरदार! जो तूने आगे कभी भी पढ़ाई छोड़ने की सोची तो।” शेखर के पिता इतने क्रोध में चिल्लाते हुए बोले थे कि शुरूआत के शब्दों की गूँज से पड़ोसियों के घर भी काँप गए और बाद के शब्द छाती में उठे खाँसी के धसके के कारण छाती में ही घुमड़कर रह गए। न जाने शेखर के पिता ने शेखर के लिए क्या-क्या सपने देखे थे। वैसे रिक्शा खींचने वाले, सब्ज़ी बेचने वाले और ईंट-पत्थर ढोने वालों के सपनों के पाँव चादर के आकार के बाहर ही पसरते हैं। 

दिन बीत गए। फ़ीस भरी जा चुकी थी। शेखर भी विद्यालय निरंतर जाता रहा। बरसात का मौसम आ गया था ग़रीबों के लिए बारिश ही उनकी सबसे बड़ी शत्रु होती है। लेकिन ‘क्यों?’ जिनका घर कच्चा हो, छत की जगह, फूस या चटाई पड़ी हो, उनसे पूछिये वे ही इस क्यों? का जवाब देंगे। ग़लती से भी सड़कों-फुटपाथों पर रह रहे लोगों से न पूछ बैठना। बारिश पर उन ग़रीबों का क्या वश चलेगा लेकिन आपको ऐसा जवाब मिलेगा जिससे आप भी बारिश के आजीवन विरोधी बन जायेंगे। 

जीवन में रोटी की क़ीमत और पेट की आग को मज़दूर भली-भाँति जानते हैं। बरसात के दिनों में पेट की ये आग और भड़क जाती है। इन दिनों दिहाड़ी मज़दूरों को कोई काम नहीं मिलता, और बरसात में ठंडे पड़ जाते हैं उनके घरों के चूल्हे। ऐसी परिस्थितियों से जूझते-जूझते इनके बच्चे भी कम उम्र में ही परिपक्व बन जाते हैं। उनके भीतर भी कुछ पाने की, कुछ बनने की, स्वयं को स्थापित करने की तथा इस समाजव्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने की इच्छा शक्ति मज़बूत आकार ग्रहण करती जाती है। इन्हीं परिस्थितियों से संघर्ष करते-करते शेखर और निशा कम उम्र में ही समझदार हो गए थे। वे अपने माता-पिता की पीठ पर बोझ बनना नहीं चाहते थे, बल्कि उनके कंधों से कंधा मिलाकर उनका सहारा बनना चाहते थे। हालाँकि ये सब इतना सहज व सरल नहीं था। मानो, कबूतर के चूजे गीले पंखों से उड़ने की ज़िद कर रहे हों, जबकि बारिश भी तेज़ हो। लेकिन शेखर व निशा जानते थे कि उनके मन की ताक़त ही थी जिससे वे किसी भी प्रचंड वेग का सामना कर सकते थे। 

ख़ैर, बारिश तो न हुई लेकिन आँधी अवश्य चली और इतनी ज़ोरदार चली कि अगली सुबह सड़कों पर कई जगह पेड़ उखड़े हुए पड़े थे, कई जगह बिजली के खंबे भी गिर गए थे। शेखर की गली के आख़िर में मिस्टर चड्डा का तीन मंज़िला मकान था। जिसकी तीसरी मंज़िल की दीवार डॉक्टर जायसवाल के मकान पर गिर गई थी, इसलिए सुबह से ही दोनों में झगड़ा हो रहा था। वहीं शेखर के मिट्टी के कच्चे घर की मज़बूती कमाल की थी। जो इतना सब सह गई। यह शेखर का घर नहीं बल्कि उसका आशियाना था जिसमें उसका परिवार रहता था। बस पीछे वाली दीवार ही चटकी थी, लेकिन यह भी इतनी आसानी से गिरने वाली न थी। उसने बीस बरसाती ऋतुओं का डटकर सामना किया है। कई बरसातें आईं और गईं लेकिन यह अभी भी वहीं खड़ी है अडिग। 

इस घटना को अभी कुछ ही दिन बीते थे कि शेखर के पिता फिर बीमार हो गए। दिन तो जैसे-तैसे कट गया लेकिन रात कटने का नाम ही नहीं ले रही थी। जैसे-जैसे रात गहराती जा रही थी और उनका ज्वर भीषण रूप लेता जा रहा था। शेखर और शेखर की माता उनकी सेवा-सुश्रूषा में साँझ से ही लगे हुए थे। आज भोजन निशा ने पकाया था। रात के तीन बजे ज्वर कुछ हल्का हुआ तब उन्होंने चैन की साँस ली। 

सुबह के क़रीब चार बजे होंगे। आसमान में अभी भी तारे टिमटिमा रहे थे। अब तक इस कुटिया में कोई हलचल न हुई थी। एकदम शांत। तभी धड़ाम से पीछे की दीवार का चटका हुआ हिस्सा ख़ाली जगह में जा गिरा। दीवार गिरने से फूस और चटाई की बनी छत की टट्टी भी गिर गई। जिसमें शेखर का परिवार दब गया। शेखर की फ़ुर्ती और पिता का अनुभव काम आया जल्द ही माँ और निशा को बाहर निकाल लिया गया। यह कोई चमत्कार से कम न था कि उनमें से किसी को भी मामूली खरोचों के अतिरिक्त कोई गंभीर चोटें नहीं आई थीं लेकिन शेखर के माता-पिता के हृदय पर न जाने कौन सा बोझ आ गिरा था। जिससे वे एक कोने में बैठे ही रह गए थे। उनके पैरों में खड़े होने की शक्ति शेष न बची थी। उस रात भीषण वर्षा हुई किन्तु गली में अभी-भी निर्जीवता ही पसरी हुई थी जैसे कुछ हुआ ही न हो। 
 

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टिप्पणियाँ

Hemant kumar saini 2023/09/08 12:08 PM

Best kahani sir

डॉ. शशि कान्त शर्मा 2023/09/07 06:23 PM

'आशियाना' कहानी अत्यंत मार्मिक कहानी है। समाज के वंचित समुदाय की चिंता करना साहित्यकारों का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए जो कि डॉ. प्रेम कुमार की इस कहानी का केन्द्रीय भाव है।

पूनम कुमारी 2023/09/06 12:51 PM

डॉ. प्रेम कुमार की 'आशियाना' नामक कहानी बहुत ही अच्छी कहानी है। और जीवंत प्रतीत होती है। आशियाना कहानी को जैसे जैसे हम पढ़ते हुए आगे बढ़ते है उसकी एक तस्वीर हमारे सामने बनती जाती है। और ऐसा प्रतीत होता है कि यह केवल एक कहानी नहीं बल्कि सच में घटित हो रहा है।

डॉ पुनीत शुक्ल 2023/09/05 11:12 AM

डॉ प्रेम आगामी दशकों में हिन्दी साहित्य की गद्य अवम पद्य दोनों ही विधाओं के उभरते साहित्यकार के तौर पर अवश्यंभावी तौर पर स्थापित होने का सामर्थ्य रखने वाले लेखक हैं । उनकी उपरोक्त कहानी 'आशियाना' बहुआयामी ड्राष्टिकोड़ को समावेशित किये हुए है। इसमे एक तरफ धन की चकाचौंध में छार होते हुए जीवन मूल्य हैं तो वहीं दूसरी तरफ शेखर के रूप में भविष्य में मानवता की थाती को संभालने हेतु मजबूत चरित्रवान कंधे भी हैं जो किसी भी विषम से विषम परिस्थिति में भी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ता। कम शब्दों में सार्थक संवाद ही डॉ साहब की विशेषता है। हाँ, कुछ स्थानों में लयबद्धता टूटती हुई भी महसूस हुई, किन्तु अग्रिम पंक्तियों में बिखराव को बखूबी संभाला भी गया है।

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