अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

संयुक्त परिवार, घरेलू हिंसा और स्त्री स्वास्थ्य 

 

भारतीय परिवार संस्था के अंतर्गत संयुक्त परिवार महत्त्वपूर्ण और स्थायी संस्था मानी जाती रही है। भारतीय संयुक्त परिवार वैश्विक स्तर पर रुचि, आकर्षण और शोध का विषय बना हुआ है। स्वस्थ परिवार के निर्माण में स्त्री की सबसे अहम भूमिका होती है। स्त्री और पुरुष के स्वस्थ सम्बन्ध परिवार को संतुलित रूप प्रदान कर समाज को विकास की दिशा की ओर उन्मुख करते हैं, वहीं दूसरी ओर उनके तनावपूर्ण सम्बन्ध परिवार के सभी सदस्यों का जीवन नारकीय बना देते हैं। संयुक्त परिवारों में पोषित परंपरागत जीवन मूल्यों तथा सामाजिक आदर्शों के कारण वर्तमान समय में ही नहीं अपितु प्राचीन काल से ही स्त्री पारिवारिक हिंसा का शिकार रही है। पति अथवा परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा स्त्रियों पर की गई हिंसा को ‘घरेलू हिंसा’ कहा जाता है। 

भारत में पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था है। हमारे समाज में पुरुष अहं स्त्रियों के जीवन का नाश कर देता है। भारत में लगभग सभी वर्ग की स्त्रियाँ घरेलू हिंसा का शिकार होती रही हैं चाहे वह अशिक्षित हो या शिक्षित, गृहणी हो या कामकाजी, परंपरावादी हो या आधुनिक। संयुक्त परिवारों में पति-पत्नी और बच्चों के साथ-साथ सास, ससुर, देवर, देवरानी, जेठ, जेठानी और ननद आदि शामिल होते हैं। इतने सभी सदस्य जब एक ही छत के नीचे रहेंगे तो आपसी मनमुटाव, वाद-विवाद अथवा नोक-झोंक होना सामान्य सी बात है किन्तु यह मन-मुटाव अथवा नोक-झोंक जब परिवार के अन्य सदस्यों के मध्य न होकर केवल स्त्री (बहू) के साथ ही निरंतर रूप से हो तो दाल में ज़रूर कुछ काला है। परिवार के सभी सदस्य अथवा अधिकांश सदस्य आपस में संगठित होकर जब केवल एक ही महिला सदस्य के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं और साधारण सी बात को बढ़ा-चढ़ाकर एक बड़े विवाद की शक्ल दे देते हैं एवं कभी-कभी यह विवाद इतना बढ़ जाता है कि वे हिंसक हो उठते हैं और महिला अथवा बहू को प्रताड़ित करने लगते हैं वे उसको गालियाँ देते हैं और मारते-पीटते हैं। इस प्रकार घरेलू हिंसा पनपती है। कई स्थानों पर तो यह भी देखने को मिला है कि घरेलू हिंसा को न सहन कर सकने की स्थिति में बहुएँ आत्महत्या कर लेती हैं और कई बार तो ससुराल वाले ख़ुद ही बहू को फाँसी पर चढ़ा देते हैं या जला देते हैं। 

वर्तमान समय में घरेलू हिंसा महिला उत्पीड़न की एक महत्त्वपूर्ण समस्या के रूप में सामने आयी है। घरेलू हिंसा के मामले निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। यह किसी भी समाज के लिए घातक हो सकते हैं। घरेलू हिंसा पर रोकथाम के लिए भारत सरकार द्वारा 26 अक्टूबर 2006 से ‘घरेलू हिंसा निषेध क़ानून, 2005’ को पूरे देश में लागू कर दिया गया है। घरेलू हिंसा निवारण क़ानून एक महत्त्वपूर्ण क़ानून है जो घरेलू हिंसा से पीड़ित स्त्रियों को संरक्षण प्रदान करता है। घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के अंतर्गत निम्नलिखित कृत्यों को क़ानूनी अपराध घोषित किया गया है:

  • पति अथवा परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा महिला को शारीरिक अथवा मानसिक रूप से प्रताड़ित करना। 

  • बच्चे न होने या पुत्र प्राप्ति की लालसा से ताने देना और मारना, पीटना। 

  • पति अथवा परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा स्त्री के साथ जबरन शारीरिक सम्बन्ध बनाने अथवा अश्लील चित्र, आडियो, वीडियो देखने के लिए मजबूर करना। 

  • महिला के साथ अप्राकृतिक ढंग से सेक्स करना या उसके गुप्तांगों को चोट पहुँचाना। 

  • महिलाओं को दहेज़ की लालसा हेतु मारना, पीटना या दहेज़ लाने के लिए मजबूर करना। 

  • महिलाओं को अपमानित करना, लात, घूँसे मारना या बच्चों को पीटना। 

  • मार पीट के दौरान महिलाओं को हत्या की धमकी देना, उसकी हत्या करना व उसे आत्महत्या के लिए उकसाना। 

  • महिला को जबरन पढ़ाई अथवा नौकरी छुड़वाने के लिए दबाव बनाना या उसके वेतन को उसे ख़र्च न करने देना। 

  • यदि स्त्री अस्वस्थ अथवा रोगी है तो समय पर उसका उपचार न करवाना। 

इनके अतिरिक्त जीवन निर्वाह करने के लिए भोजन, वस्त्र, धन एवं घर के सामान अथवा वस्तुओं का उपयोग करने से रोकना, लड़की का बिना उसकी इच्छा के जबरन विवाह करना या उसके नापसंद लड़के अथवा पुरुष से विवाह कराना आदि भी घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के अंतर्गत अपराध माने जाएँगे। जिनका उल्लंघन करने पर सख़्त से सख़्त सज़ाओं का प्रावधान किया गया है। 

घरेलू हिंसा एक विश्वव्यापी समस्या है। आज दुनिया भर की महिलाएँ अपने ही घर में मारी, पीटी जा रही हैं। महिलाओं के प्रति हिंसा का मुख्य कारण है समाज में उनका निचला दर्जा, कम प्रतिष्ठा और महत्त्व। विश्व स्वास्थ्य संगठन के शोध द्वारा पता चला है कि विश्व की 50 प्रतिशत से अधिक महिलाएँ घरेलू हिंसा से पीड़ित हो रही हैं। एम.ए. स्ट्रास ने ‘फ़ैमिली वायलेंस’ नामक पुस्तक में घरेलू हिंसा के निम्नलिखित आठ प्रमुख कारणों को चिह्नित किया है:

  1. युगल के मध्य दैनिक गतिविधियों का टकराव 

  2. एक-दूसरे को प्रभावित करने की इच्छा 

  3. उलझाव की प्रबलता 

  4. एक जीवनसाथी के द्वारा ज़िम्मेदारियों से पलायन 

  5. अत्यधिक मानसिक दबाव

  6. अनैच्छिक सदस्यता 

  7. पारिवारिक एकांतता

  8. युगल के मध्य आयु एवं लिंगीय विसंगति

भारत में महिला उत्पीड़न कभी-कभार होने वाली घटना नहीं है। यहाँ तो महिला उत्पीड़न बेटी के जन्म से पहले ही शुरू हो जाता है और उसके जीवनकाल की हर अवस्था-शैशव, बालपन, किशोरावस्था, यौवन व बुढ़ापे में भी निरंतर क़ायम रहता है। अगर महिला और पुरुष की दिनचर्या अथवा दैनिक कार्यों का विश्लेषण करें तो पाएँगे कि महिलाएँ पुरुषों से अधिक काम करती हैं। भारतीय संयुक्त परिवारों की महिलाओं को रोज़ाना 15 से 17 घंटे काम में खटना पड़ता है। दिन और रात मिलाकर कुल 24 घंटे होते हैं अर्थात्‌ महिलाओं के लिए आराम का समय केवल 07 घंटों का है इन्हीं में उनका सोना भी शामिल है। पुरुषों को सप्ताह में एक या दो दिनों की छुट्टी मिल भी जाती है किन्तु महिलाओं को वह भी नसीब नहीं। वे नियमित रूप से घर के कामों में लगी रहती हैं। कामकाजी महिलाओं की और भी अधिक दुर्गति है वे सुबह घर का कार्य कर के काम पर निकलती हैं फिर साँझ को काम से लौटने के पश्चात घर के आवश्यक कार्यों में लग जाती हैं। परिवार की ज़िम्मेदारियाँ और काम का अत्यधिक बोझ महिलाओं को शारीरिक व मानसिक रूप से कमज़ोर बनाता है। अधिकांश गृहणी महिलाओं को सिर, कमर व पीठ का दर्द सताता है। इतना ही नहीं बीमार पड़ने पर वे कई बार इलाज कराने के लिए भी नहीं जा पाती क्योंकि उससे घर के कामों में व्यवधान आएगा। 

शरीर का विकास भोजन की मात्रा व पोषकता पर निर्भर करता है। हमारे शरीर को कैल्सियम, प्रोटीन, वसा आदि की समुचित मात्रा में आवश्यकता होती है अन्यथा शरीर कमज़ोर हो जाता है। मासिक धर्म के दौरान स्त्रियों को पौष्टिक आहार और आराम की आवश्यकता और अधिक बढ़ जाती है। ‘नेशनल फ़ैमिली हैल्थ सर्वे’ के अनुसार भारत में 80-83 प्रतिशत महिलाएँ ख़ून की कमी से होने वाली बीमारियों से पीड़ित हैं। अधिकांश महिलाओं का चेहरा फीका दिखता है। उनकी आँखें अंदर की ओर धँस गई हैं और आँखों के नीचे काले निशान बन गए हैं। उनके नाख़ून पीले पड़ गए हैं। हाथ-पैरों में सूजन, सिर दर्द होना, चक्कर आना या सुस्ती रहना आदि भी पौष्टिक भोजन अथवा भोजन की उचित मात्रा न मिलने के कारण शरीर में आई ख़ून की कमी और कमज़ोरी की पहचान है। 70 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में भी ख़ून की कमी पाई गई है। भारत में प्रत्येक वर्ष एक लाख से अधिक महिलाओं की मृत्यु ख़ून की कमी और उससे होने वाली बीमारियों के कारण हो जाती है। 

स्वस्थ परिवार स्वस्थ समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है वहीं स्त्री-पुरुष अथवा परिवार के अन्य सदस्यों के मध्य संबंधों की विषमता समाज की प्रगति में भी व्यवघाती सिद्ध होती है। संयुक्त परिवारों में बढ़ते काम के बोझ और पेट भर पौष्टिक भोजन न मिलने के कारण शरीर में आई रक्त की कमी व ऊपर से उनके साथ की जाने वाली मार पीट अर्थात्‌ घरेलू हिंसा का महिलाओं के स्वास्थ्य पर अनेक प्रकार के दुष्प्रभाव पड़ते हैं। शारीरिक, मानसिक या यौन हिंसा की शिकार स्त्री चुपचाप स्वास्थ्य संबंधित कई प्रकार की मुश्किलों को सहती हैं। महिलाओं के प्रति की गई घरेलू हिंसा का दुष्परिणाम घर के बच्चों पर भी पड़ते हैं इससे उनके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता। 

अतः घरेलू हिंसा किसी एक वर्ग, धर्म, जाति या किसी विशिष्ट समुदाय तक सीमित नहीं है और न ही यह किसी शहर, नगर अथवा गाँव तक ही सीमित है क्योंकि घरेलू हिंसा आज एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है। हालाँकि भारत में इसका अतिभायानक रूप देखने को मिलता है। इससे निबटने के लिए भारत सरकार ने ‘घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम, 2005’ बनाया है। जिससे महिलाओं को कुछ सहूलियत तो अवश्य मिली है किन्तु घरेलू हिंसा को रोकना केवल सरकार की ही नहीं हम सबकी भी ज़िम्मेदारी बनती है। घरेलू हिंसा के प्रति हमें चुप्पी तोड़नी होगी और घरेलू हिंसा निवारण में भागीदारी निभानी होगी। हमें अपनी मानसिकता को बदलना होगा बेटियों को भेदभाव तथा उपेक्षा की दृष्टि से न देख बेटों के समान मानना होगा, साथ ही बेटी और बहू के अंतर को दूर कर उनके साथ अच्छा व्यवहार करना होगा पत्नी को अपना नौकर या दास न समझ अपनी जीवनसंगिनी मानना होगा प्रत्येक पग पर उसका साथ देना होगा तभी घरेलू हिंसा का अंत सम्भव है। 

डॉ. प्रेम कुमार
अध्यक्ष, हिंदी विभाग, निर्वाण विश्वविद्यालय जयपुर
                        ईमल: premkumar.sahitya@gmail.com 
                        दूरभाष: 9990418965, 7038096327
 

संदर्भ ग्रंथ:

  1. जौहरी, डॉ. रचना (2009) महिला उत्पीड़न, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस दिल्ली

  2. सिंह, मीनाक्षी निशांत (2010) आधुनिकता और महिला उत्पीड़न, ओमेगा पब्लिकेशन्स दिल्ली

  3. व्होरा, आशारानी (2005) आधुनिक समाज में स्त्री. श्री नटराज प्रकाशन दिल्ली

  4. सिंधवी, कमला। (2011) आधुनिक परिवार में स्त्री, नई कल्याणी शिक्षा परिषद दिल्ली

  5. यादव, राजेन्द्र। (2007) आदमी की निगाह में औरत, राजकमल प्रकाशन दिल्ली

  6. शुक्ल, उमा। (1994) भारतीय नारी अस्मिता की पहचान, लोकभारती प्रकाशन इलाहबाद

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

सामाजिक आलेख

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं