बाढ़
कथा साहित्य | कहानी डॉ. प्रेम कुमार15 Sep 2023 (अंक: 237, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
न जाने ईश्वर की भी क्या इच्छा थी पिछले चार दिनों से निरंतर बारिश हो रही थी। जिससे यमुना नदी का जलस्तर ख़तरे के चिह्न को पार कर गया था। मौसम विभाग ने भी महानगर दिल्ली में बाढ़ आने का अंदेशा जता दिया था। हर्ष बस्ती की स्थिति तो और भी दयनीय थी। यहाँ समाज के निचले तबक़े के लोग रहते थे। जिन्हें तीव्र गति से बढ़ते हुए शिष्ट समाज ने हेय बना दिया था। कल शाम से सभी अपने-अपने टेलीविज़न से चिपके हुए बैठे थे, जिनके पास टेलीविज़न न था वे रेडियो से . . . पिताजी भी रेडियो को बग़ल में दबाए अपनी झुग्गी में टहल रहे थे। हर बार मौसम विभाग की दी हुई चेतावनी मानो उनके हृदय पर हथौड़े की भाँति चोट करती थी जिससे वे तिलमिला उठते। बरसात का मौसम हमारे लिए सचमुच काल के समान होता है और इस मौसम को काट लेना किसी वरदान का प्रतिफल।
घड़ी में ग्यारह बज रहे थे किन्तु अब भी लगातार वर्षा हो रही थी। बरसात का पानी अब तो झुग्गियों में आने लगा था इसीलिए माँ ने कहा, “सुनते हो! नीचे रखे सन्दूक को उठवाकर चारपाई पर रखवा दो नहीं तो इसमें भी पानी घुस जाएगा।” चारपाई पहले ही घिर चुकी थी उस पर पहले से ही बहुत सामान रखा हुआ था जिसको बचाना अतिआवश्यक था, और इसी पर मेरा तीन साल का छोटा भाई बिरमू सोया हुआ था। पिता ने माँ को झिड़कते हुए कहा, “कहाँ रक्खेगी? . . . उस पर जगह कहाँ है जो सड़ता है सड़ने दे। एक चारपाई है जो बच्चों के लिए है . . . उस पर सामान कहाँ से लादें।” पिता के कथन में उनकी बेबसी अधिक झलक रही थी जिसे उन्होंने क्रोध और आवेश से छिपाने का प्रयत्न किया था। हालाँकि इससे माँ भी अनभिज्ञ न थी।
झुग्गी में पानी बढ़ता ही जा रहा था। जिसको कटोरी से बाहर उलीचने का असफल प्रयास माँ ही नहीं बल्कि बस्ती की सभी स्त्रियाँ कर रही थीं। लेकिन पानी कम होने का नाम नहीं लेता था जितना बाहर जाता उससे दोगुना अंदर आ जाता था। कहीं-कहीं से झगड़ों की आवाज़ें भी आने लगी थीं क्योंकि पानी उलीचते समय अक़्सर ये स्त्रियाँ सामने वाले के घरों में ही पानी फेंक देती थीं। स्त्रियों के झगड़े शुरू हो गए थे। फूहड़ गालियाँ बरसने लगीं। कभी-कभी इस तरह के झगड़े पुरुषों में भी पहुँच जाते थे। एक-दूसरे के सिर फूटने, हाथ-पाँव टूट जाने की घटनाएँ यहाँ आम हो चली थीं।
माँ पानी उलीच-उलीचकर थक चुकी थी। वह भी अब चारपाई पर बैठ गई। पिताजी इस पर लेटकर रेडियो पर ख़बरें सुन रहे थे।
माँ ने कहा, “आज खाना नहीं खाओगे? . . .”
पिताजी में चेतना लौटी और कहा, “क्यों नहीं . . . खाना तो ज़रूर खाएँगे। चाहे घर में मौत ही क्यों न हो। इस पापी पेट की आग तो बुझानी ही पड़ती है। लेकिन बनाएगी कहाँ? पूरी झुग्गी तो जलमग्न है।”
“तुम बिरमू को गोद में ले लो मैं स्टोव खाट पर रखकर ही बना लूँगी”
कुछ देर में ही खाट पर नमक, मिर्ची के डिब्बे, आटे की थैली और परात में स्टोव रखा गया। स्टोव जलने लगा। माँ ने तवे पर रोटियाँ डालनी शुरू कीं। खाट पर जलते हुए स्टोव को देख पिताजी रोना चाह रहे थे। किन्तु न रो सके क्योंकि माँ के सामने उनकी पोल खुल जाती। हमारे देश में पुरुषों को मज़बूत और कठोर मानने की प्रथा जो है। पुरुष विपत्तियों का डटकर सामना करते हैं स्त्रियों की तरह रोते नहीं है। पिताजी के रोने से सदियों के रिकॉर्ड के टूटने का ख़तरा था।
दस मिनटों के पश्चात रेडियो पर फिर समाचार आए। बाढ़ के लिए चेतावनी ही मुख्यार्थ था। एकाएक पिताजी ने कहा, “स्टोव बंद कर! अभी आता हूँ।” बिरमू खाट से उठ खड़ा हुआ।
“लेकिन जा कहाँ रहे हो?
“कहीं नहीं . . . बस अभी आता हूँ। तू और रोटी मत बनाईयो।” और मुस्कुराते हुए झुग्गी से निकल गए। पिताजी के चेहरे पर ये मुस्कुराहट एक रहस्य सी थी। आज वह एक सप्ताह बाद मुस्कुराए थे। जिसे माँ समझ न पाई थी।
जल्द ही पिताजी लौट आए थे। उनके हाथों में दो-तीन थैलियाँ थीं। एक थैली में बेसन, दूसरी में दूध और तीसरी में वही डिब्बा था जिसमें पिताजी तेल ही लाये होंगे। पिताजी के चेहरे पर अब भी वही रहस्यपूर्ण मुस्कुराहट थी। पिताजी बोले, “पगली! जब मरना ही है तो खा-पीकर ही मरेंगे। बड़े-बुज़ुर्ग कहते हैं भूखी आत्माएँ यहीं भटकती रहती हैं वे स्वर्ग नहीं जातीं।”
माँ ने कहा, “स्वर्ग हमें नहीं मिलेगा बिरमू के बापू। जब यहाँ ही नरक में रहते हैं तो वहाँ स्वर्ग कैसे मिल सकता है?”
अब स्टोव पर तवे के स्थान पर पतीला रखा गया। माँ ने जिसमें खीर बनाई थी। खीर के पश्चात स्टोव पर कढ़ाई रखी गई। माँ ने अब उसमें पकौड़े और कचौड़ियाँ भी बनाईं। उस रोज़ पहली बार हमने इतना अच्छा और भरपेट भोजन किया था। फिर पिताजी ने मुझे अपने साथ सुला लिया। यह नींद कोई साधारण नींद न थी बल्कि यह नींद मौत के इंतज़ार की नींद थी। या यूँ कहूँ कि अपनी पसंद की चुनी हुई मौत। कुछ देर बाद सब सो चुके थे। झुग्गी में सन्नाटा पसर चुका था। हमारी चेतना इसी सन्नाटे में गुम हो गई थी।
मेरी आँख खुली तो जंगले से धूप का चौंधा मेरी आँखों पर चिलचिलाने लगा। बाहर तेज़ धूप खिल चुकी थी। माँ पिताजी से झगड़ा कर रही थी क्योंकि सोने से पहले का यह ठाट-बाट सचमुच चुनी हुई मौत थी। दरअसल पिताजी सब सामान उधार लाये थे। मौत नहीं आई थी लेकिन हम क़र्ज़ की मार से मर ज़रूर जाएँगे।
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