अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

भेड़िया

 

चार साल हुए ठाकुर बलवंत के पिता को गुज़रे। आदमी क्या थे साक्षात्‌ देवता थे देवता। हर साल अपने गाँव की पुश्तैनी हवेली आते और ग़रीब गाँव वालों का कल्याण करते थे। आज भी गाँव वालों की रगों में ठाकुर ख़ानदान के प्रति प्रेम-स्नेह और सम्मान की भावना रक्त की तरह दौड़ती है। उनके गुज़रने के बाद ठाकुर बलवंत भी साल में एक बार यहाँ अवश्य आते हैं। यहाँ हरिया उनकी देखभाल करता है। हरिया का ठाकुर ख़ानदान से सदियों का नाता है। हरिया के पुरखे इस हवेली में नौकर रहे हैं, और यह सौभाग्य हरिया को भी प्राप्त हुआ। 

गाँव का नाम है—दौलतपुरा लेकिन दौलत का तो यहाँ नाम-ओ-निशान तक न था। ये गाँव मुख्यतः भूमिहीन किसानों का था। ठाकुर ख़ानदान के अलावा मुश्किल से चार-पाँच परिवारों की दशा ही ठीक थी जो अपनी खेती से गुज़ारा करके चार पैसा बचा लेते थे। वरना समूचे गाँव की दशा अत्यंत दयनीय थी। सभी पुरुष रोज़ मेहनत-मज़दूरी करने शहर जाया करते थे। वे रोज़ कुआँ खोदते और रोज़ पीते अर्थात्‌ प्रतिदिन कमाते और प्रतिदिन खा जाते थे। उनकी मज़दूरी ही इतनी कम थी जिससे कि कभी उनको भरपेट पौष्टिक आहार तो मिलता ही न था। इनकी महिलाएँ चौका-बर्तन करने जाती थीं। कपड़ों के लिए मज़दूर बहुएँ, मालिक-स्त्रियों की टहल एवं ख़ुशामद करतीं। बदले में बचा-खुचा खाना और उनके छोड़े हुए कपड़ों के लिए हाथ फैलातीं, विनती करतीं और यदि कोई फटा-पुराना हुआ मिल जाए तो अपना सौभाग्य समझती थीं। यहाँ सरकार द्वारा चलाई जा रही ‘मनरेगा योजना’ का भी कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखाई पड़ रहा था। मानरेगा योजना को ग्रामीण भारत में बढ़ते पलायन को दूर करने तथा ग्रामीणों को उनके ही गाँव में रोज़गार सुनिश्चित करने के लिए लाया गया था। मनरेगा को 12 वर्षों से अधिक समय गुज़र जाने के उपरांत भी यह योजना ग्रामीण भारत के लिए दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं करा पा रही है। जो बजट आवंटित किया जाता है उससे मज़दूरों को समय पर न ही मज़दूरी मिल पाती है और न ही उचित मेहनताना ही मिलता है, इसलिए मज़दूर अब भी या तो भूखे काम कर रहे हैं या भरी तादाद में मज़दूर काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते जा रहे हैं। 

बहरहाल, इधर पिछले चार वर्षों से गाँववाले एक भेड़िये के आतंक से परेशान थे। यह भेड़िया जवान लड़कियों का ही शिकार करता था। साल-दर-साल इस भेड़िये का आतंक बढ़ता ही जा रहा था लेकिन गाँव वाले कुछ कर न पाते थे। क्योंकि यह भेड़िया कुछ दिनों तक ही गाँव की लड़कियों और औरतों का शिकार करता और फिर न जाने अगले एक वर्ष के लिए जंगलों में कहाँ अदृश्य हो जाता। 

साँझ होने को थी। घड़ी में लगभग पाँच बजे होंगे। ठाकुर बलवंत बिस्तर पर पड़े अलसा रहे थे। मुँह छत की ओर ऊपर उठा हुआ था, आँखें एकटक छत से टँगे झूमर को देखे जा रही थीं। प्रतीत होता था मानो किसी कार्यक्रम की योजना बना रहे हों। एक-दो करवटें बदलीं फिर उठ बैठे। बाथरूम में जाकर मुँह-हाथ धोया। फिर आवाज़ लगाई, “हरिया . . . हरिया . . .!!!” 

“जी सरकार . . .!” पलक झपकते ही हरिया ख़िदमत में हाज़िर हुआ। 

“हमारे लिए शराब लाओ!” 

विदेशी शराब के घूँट गले से नीचे उतरने लगे। हरिया ठाकुर बलवंत के चेहरे की ओर देखता रहा। बलवंत की आँखें लाल होने लगी थीं। चेहरा तमतमाने लगा था। हरिया सोच में डूबा हुआ था कि ठाकुर बलवंत के पूर्वजों ने कभी शराब को हाथ तक न लगाया। फिर यही क्यों ऐसे हैं जिन्हें शराब और शबाब का इतना शौक़ है कि जिनके नशे के बिना इन्हें नींद ही नहीं आती। 

ठाकुर बलवंत व्हिस्की, रम, वोदका इत्यादि विदेशी शराब पसंद किया करते थे। वे शराब में बर्फ़ के छोटे-छोटे आयताकार टुकड़े और सोडा मिलाकर पीते थे। जितने दिन ठाकुर बलवंत गाँव की हवेली पर रुकते उतने दिन प्रति साँझ को हरिया एक बड़ी शीशेदार मेज़ पर शराब की बोतल और नमकीन, चिप्स, भट्टी में पकाया हुआ मुर्गे का मांस, उबले हुए अंडे और कुछ प्लेटों में भुने हुए काजू, बादाम सजाकर रख देता था। जैसे-जैसे मालिक शराब पीते जाते वैसे-वैसे हरिया उनके काँच के गिलास में शराब उड़ेलता जाता। आज भी यह क्रम लगभग दो घंटों तक जारी रहा। 

“हरिया! सात बज गए हैं . . . हमारे सोने का समय हो गया है।” ठाकुर बलवंत की आँखों से गुलाबी डोरे झाँक रहे थे। जिनका अभिप्राय हरिया भलि-भाँति समझता है। पिछले चार वर्षों से हरिया ही सरकार के लिए जैसे-तैसे लड़की का बंदोबस्त करता रहा है। हालाँकि इस काम के लिए हरिया का ज़मीर उसको धिक्कारता रहा है। वह सोचता है आख़िर यह क्रम कब तक चलेगा? हरिया को ठाकुर बलवंत के इस तरह के संवादों-सुझावों और झिड़कियों की आदत पड़ चुकी थी। हालाँकि हरिया को हर बार उनकी इन बातों से उनके हितैषी होने का आभास होने लगता था। किन्तु ठाकुर बलवंत छद्म हितैषी थे। यह भी एक मानी हुई सच्चाई है कि क्षुद्रता और मूर्खता न तो कभी पराजित होती है न ही कभी शर्मिंदा, इसलिए हरिया के छद्म हितैषी बनकर वे किसी न किसी बहाने फिर सक्रिय हो जाते थे। ठाकुर बलवंत अपने तर्कों से उसे फिर बौना बना देते और वह भी पूरी लगन के साथ उनकी सेवा-सुश्रूषा में पुनः सक्रिय हो जाता था। ईमानदारी, वफ़ादारी, सेवाभाव और सच्चाई भारतीय ग्रामीण ज़िन्दगी की बहुत बड़ी विशेषताएँ हैं, जिनका सिलसिला कभी थमता नहीं हमेशा जारी रहता है। 

हरिया को चुपचाप खड़ा देखकर ठाकुर बलवंत गुर्राये। इस बार हरिया अंदर तक काँप गया और डरते-डरते बोला, “सरकार इस बार यहाँ पुलिस का पहरा बढ़ गया है।” 

“ओफ़ हो! नॉनसेन्स . . . पुलिस, क़ानून ये किस चिड़िया का नाम है। जिसके पास पैसा होता है। उसके पास हर चीज़ की क़ीमत चुकाने का दम होता है। उसके लिए पुलिस, क़ानून नाम की कोई चीज़ नहीं होती।” 

बेमन-सा पैरों में भार लेकर हरिया हवेली से बाहर निकला। महज़ आधे घंटे पश्चात हरिया हवेली में पुनः हाज़िर हुआ। उसके साथ में एक सोलह-सत्रह साल की लड़की थी मरियल सी फटेहाल। 

“वाह . . . शाब्बास हरिया! मुझे पता है तू मेरा सबसे ज़्यादा ख़्याल रखता है। वैसे शहर में लड़कियों की कमी नहीं है। लेकिन शहर की लड़कियों की देह में वो मज़ा नहीं जो यहाँ की लड़कियों में है। शहर में एक तो लड़कियाँ जल्दी मानती नहीं हैं नख़रा करती हैं, और मान भी जाएँ तो कमबख़्त गले ही पड़ जाती हैं। ऊपर से अदालत की धमकी देने लगती हैं। गाँव की लड़कियों की देह में कच्ची मिट्टी की महक होती है। और हो भी क्यों न इंसान की देह ही मिट्टी की होती है। और जब दो मिट्टी की देह आपस में गुंथती हैं तभी तो नई देह का निर्माण होता है। क्यों हरिया?” ठाकुर बलवंत ठहाका मारकर शैतानी हँसी हँसने लगे। ठाकुर बलवंत से अब रहा नहीं जा रहा था। वे उतावले से लड़की पर झपट पड़े। बिस्तर पर पड़ी उस लड़की के जिस्म को पहले उसने टटोला और फिर हज़म कर गए। 

अगली सुबह गाँव में हड़कंप मचा। भेड़िया एक लड़की फिर से चट कर गया। हरिया इस पाप का बोझ सिर पर ढोते हुए हवेली आया। दिन गुज़रा और फिर शाम होने लगी। ठाकुर बलवंत विदेशी शराब गटक रहे थे। हरिया रोज़ की तरह उसे एकटक देख रहा था। उसे मालिक की आँखों में वही गुलाबी डोरे तैरते नज़र आने लगे। इन्हें देख हरिया काँपने लगा। 

“हरिया . . . क्या तुझे रोज़ मेरे सोने का टाइम बताना होगा?” ठाकुर बलवंत इतनी तेज़ चिंघाड़े थे कि हरिया दो क़दम पीछे खिसक गया। मुँह से कुछ न बोल सका। चुपचाप! मानो उसकी वाक शक्ति ही ख़त्म हो गई हो। ठाकुर बलवंत फिर दहाड़े, “तुझसे किसी और का इंतज़ाम नहीं होता तो बेला को ही ले आ।” 

हरिया पर वज्रपात हुआ काटो तो ख़ून नहीं। फिर भी वाणी फूटी। गिड़गिड़ाया, “सरकार अभी वो बच्ची है सिर्फ़ चौदह साल की। उसे बख़्श दो।” 

“तो क्या हुआ? देख हरिया . . . हर कली एक दिन खिलकर फूल बनती है जिसे भँवरा खिलाता है। उसी तरह हर लड़की को एक न एक दिन तो औरत बनना ही है। आज नहीं तो कल . . . और तू नहीं जानता क्या कल के भरोसे कोई काम नहीं छोड़ना चाहिए ‘कल करे सो आज कर आज करे सो अब’ तूने संतों की वाणी नहीं सुनी?” ठाकुर बलवंत के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी। 

“हुजूर . . . उसे बख़्श दो।” 

“क्या तू भूल गया कि तूने और तेरे पूर्वजों ने सदियों से हमारा नमक खाया है। तू अपने पुरखों की सेवा भावना पर भी कालिख पोतना चाहता है। ये पैसे ले और जा बेला को ले आ। तू तो जनता है कि मैं मुफ़्त की कोई चीज़ नहीं लेता। हर चीज़ की क़ीमत अदा करता हूँ।” ठाकुर बलवंत ने कोट की जेब में हाथ डाला और सौ-सौ के नोटों की दो गड्डियाँ आगे फेंक दीं। बुझे मन से हरिया ने नोट उठाए और डगमगाते क़दमों से अपने घर की ओर बढ़ गया। दस मिनटों के पश्चात हरिया दोबारा हवेली में प्रविष्ट हुआ। सोती हुई बेला को बिस्तर पर पटक कर तुरंत बाहर आ गया। 

हरिया बाहर खड़ा-खड़ा ख़ुद को कोसने लगा। आज उसकी बेटी नहीं बचेगी। उसके मस्तिष्क में उन तमाम लड़कियों की तस्वीरें आने-जाने लगीं। ठाकुर ने जिनकी अस्मिता को ही नहीं रौंदा था बल्कि उनकी बेबसी और ग़रीबी को भी मसल दिया था। मरने के बाद हरिया ही इनकी लाश को जंगल में फेंक कर आता था। अचानक उन लड़कियों की तस्वीरों में बेला की तस्वीर सामने आई और फिर उन्हीं शक्लों में गड्डमड्ड हो गई। उसके अंदर एकदम से प्रश्न कौंधा—नहीं! नहीं! बेला नहीं मारेगी बेला बच जाएगी? तभी उसके मन में दो वर्ष पुरानी घटना ताज़ा हो गई। जब हरिया ठाकुर बलवंत के लिए एक आदिवासी लड़की लाया था। उसके जिस्म से जब ठाकुर बलवंत का एक बार में पेट न भरा था तो उसके जिस्म को आठ दिनों तक नोचता रहा। और शहर जाते समय उसे जंगल में बिसरा गया था। बाद में लड़की जंगल में पेड़ों से सर पटक-पटक कर पागल हो गई थी। कुछ महीनों बाद जब वह माँ बन गई तो अपने ही बच्चे का सर पत्थर से कुचलकर नदी में बहा दिया था। नहीं नहीं . . . मेरी बेला के साथ ऐसा नहीं होगा। 

लेकिन वह करे भी तो क्या करे? प्रतिरोध करने की उसमें क्षमता नहीं है। ग़ुलामी उसके ख़ून में तैरती है। उसने सदियों से इस हवेली का नमक खाया है। वह नमकहरामी कैसे कर सकता है? किन्तु वह बेला का पिता भी तो है। पिता क्या? बेला की माँ तो उसको जन्मते ही परलोक सिधार गई थी। हरिया ने ही उसे पाला है। माँ-बाप दोनों का प्यार दिया है। हरिया ही उसकी माँ और हरिया ही उसका बाप है। इस समय उसके हृदय पर कठोर प्रहार हो रहे थे। वह सोचने लगा आख़िर क्या बीतती होगी उन लड़कियों के माँ-बाप पर जिनसे हरिया उनकी भूख और ग़रीबी का सौदा कर लड़कियाँ लाता था। हरिया इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था। 

एकाएक कमरे से चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आने लगीं। वैसे तो रोज़ ही कमरे से ऐसी आवाज़ें आती थीं लेकिन आज इन चीख़ों ने हरिया की आत्मा को उद्वेलित कर दिया था। इन चीख़ों के बीच अचानक ज़ोर का विस्फोट हुआ। यह आवाज़ बंदूक की गोली चलने की थी। हरिया कमरे की ओर भागा। उसने दरवाज़ा धकेला रोज़ की तरह दरवाज़ा खुला हुआ था। वह देखकर हतप्रभ रह गया। ठाकुर बलवंत का शव ख़ून से लथपथ फ़र्श पर पड़ा हुआ था। हरिया ने बेला की ओर देखा और डर गया। बेला के वस्त्र जगह-जगह से फटे हुए थे। खुले बाल फैले हुए थे। आँखों में ख़ून उतर आया था। हाथ में ठाकुर घराने की वही पुश्तैनी दो नाली बंदूक थी। जिससे ठाकुर बलवंत के पूर्वज जंगली जानवर को मारकर गाँववालों को बचाते थे। आज भी एक जानवर मारा गया था। जिसे मारने की हिम्मत हरिया कभी न कर सका, और यह काम बेला ने अपनी अस्मिता बचाने के लिए किया। 

गोली चलने की आवाज़ गाँव और जंगल में भी गूँज गई थी। अगली सुबह गाँव वाले हवेली के इर्द-गिर्द इकट्ठे हुए। हरिया ने उनसे कहा ठाकुर साहब ने उस भेड़िए को मार दिया है और भोर में जीप पर लादकर शहर ले गए हैं। उस रात गाँव में जश्न मनाया गया लेकिन कुछ घरों में दीपक भी न जला था। वे शोक में थे। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

सामाजिक आलेख

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं