दौड़
काव्य साहित्य | कविता अनुपमा रस्तोगी1 Jul 2019
बचपन में सुना था
उठो, दौड़ो, भागो,
वरना पीछे रह जाओगे।
फिर क्या था
ज़िन्दगी एक दौड़ बन गयी,
सरपट भागती, कभी न रुकती
सुबह, शाम, दिन, प्रतिदिन,
एक निरंतर दौड़।
अलार्म के साथ सुबह उठने से
रात को थक कर निढाल होने तक,
बच्चों को स्कूल भेजने की दौड़,
ऑफ़िस टाइम पर पहुँचने की दौड़,
डेडलाइन्स, मीटिंग्स समय पर निपटाने की दौड़,
शाम को समय से घर पहुँचने की दौड़,
दौड़ दौड़ दौड़!
फिर एक दिन रुकी और देखा
इस भाग दौड़ मे मन कहीं पीछे छूट गया,
टटोला तो... पाया वह उदास है
उसने पूछा कि हम क्यों दौड़ रहे हैं?
और किस से भाग रहे हैं?
जब सबका अपना सफ़र अलग है ,
तो फिर किस से आगे निकलने की होड़ है।
बस उसी वक़्त तय कर लिया
बहुत हुआ, अब और नहीं
तब से बस -
रुको, देखो और अपनी रफ़्तार से चलो
मस्त रहो और स्वस्थ रहो।
(दौड़ना ही है तो... मैराथन दौड़ो, कम से कम मैडल तो मिलेगा!)
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Sangeeta 2019/11/17 12:19 PM
You’ve beautifully jot down our emotions in your poetry ... almost everyone can relate to it. It’s so true we need to slow down, look back, relax and start living in true meaning❤️