गाँव को छोड़कर
काव्य साहित्य | कविता ललित मोहन जोशी1 Aug 2023 (अंक: 234, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
शहर में आकर गुज़र बसर करने लगे हैं
सो पुश्तैनी घर को छोड़कर शहर आ चुके हैं
सुकून से भरी सुबह शाम गाँव की छोड़कर
ना जाने क्यों शहर के ग़म-ओ-रंज सहने लगे हैं
गाँव को शहर से जोड़ती उस नई सड़क से
देखो गाँव आने के बजाय शहर जाने लगे हैं
उस सड़क के किनारे पर बैठा वो बूढ़ा आदमी
राह अपनों की तकते वो नैन जैसे रोने लगे हैं
सुबह से शाम तलक वहीं राह निहारकर
शाम को वो पाँव अभागे थके घर जाने लगे हैं
और देखो जिस मिट्टी में पलकर हुए बड़े जो
वो आज उसी मिट्टी को बंजर करने लगे हैं
मेरा गाँव बड़ा ख़ूबसूरत उस चाँद सा लगे है
जो आसमां को कभी पूरा तो कभी अधूरा लगे है
ख़्वाहिशें ना थीं उस सुकून से भरे मेरे गाँव की
बस लोग शहर से गाँव की तरफ़ आने लगे हैं
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टिप्पणियाँ
Mansi joshi 2023/08/02 10:57 PM
बहुत सुंदर रचना और अभिव्यक्ति
सुनील 2023/08/02 09:47 AM
गाँव की पीड़ा को ज्यों का त्यों लिख दिया ललित जी आपने। यूहीं जारी रहो।
Rakesh koli 2023/07/31 10:24 PM
बहुत खूब बहुत खूब
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अंकुर मिश्रा 2023/08/08 04:03 PM
बेहद उम्दा बेहतरीन