अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

हादसा–03– गुनहगार हूँ या नहीं

 

कन्या भ्रूण हत्या का अगला हादसा जो रह-रह के भी नहीं भूलता 15 मई का दिन, क़रीब 12 बजे से पहले फोन की घंटी बजी। हैल’ कहते ही उधर से आवाज़ आई, “भाभी जी क्या आप . . . अस्पताल, जालंधर आ सकती हैं? हमें आपकी मदद चाहिए।” कविता . . .सदैव तैयार। मैंने अस्पताल का पूरा पता लिया और बिना कोई सवाल, जवाब के, बस में बैठ उन तक पहुँच कर ही साँस ली। मुझे कोई अनुमान नहीं क्या माजरा था, क्या मुसीबत? यही सोचूँ . . . मैं भाग्यशाली हूँ जो लोग मेरी सहायता माँगते हैं। मीना (काल्पनिक नाम) कमरे में अर्धमूर्छित-सी लेटी हुई ने मुझे देखा तो निश्चिन्त-सी हो गई। मैंने भी उसके माथे पर हाथ रख उसे सांत्वना दी, कहा, “धैर्य रखो तुम जल्दी ठीक हो जाओगी|” 

इतना सुनते ही उसकी आँख लग गई। मैं भी उसकी अस्वस्थता का कारण दीवारों से पूछती रही लेकिन सहमी हुई कोई दीवार, द्वार कुछ न बोला। 

इतने में रोहित (उसका पति) अंदर आया, थोड़ा अस्त-व्यस्त लगा लेकिन औपचारिकतावश मेरा हाल-चाल पूछा, इतनी जल्दी पहुँचने पर उसने धन्यवाद भी किया। फिर धीरे से एक लिफ़ाफ़ा जिसमें करंसी थी मुझे पकड़ाते हुए कहने लगा, “भाभी जी ‘चैक’ करने के बाद यह पैसे आप नर्स को दे देना।”

बात को अभी पूर्ण विराम नहीं लगा था सारा ‘कांड’ व दृश्य मेरी आँखों के आगे घूम गया और मेरा दिमाग़ जैसे . . . फटने को, क्योंकि उन दिनों यह ‘कारोबार’ अभी नया-नया शुरू हुआ था, जो थोड़ा महँगा भी था। 

मीना लुट चुकी थी। पहले एक बेटा एक बेटी का सुखद संसार व परिवार था। लेकिन बेटों का जोड़ा बनाते बेटियों की जोड़ी तोड़ चुकी थी। मैं उस ढेर तक कैसे पहुँचती जहाँ कोने में एक नहीं अनेकों रूई के कतरों में निर्जीव अध्जन्मीं कन्याएँ लिपटी पड़ी थीं। मैं जिस आशा और कर्त्तव्य भावना से भागी गई थी, अब वापस क्या मुँह लेकर लौटूँ? यह एक प्रश्न था जिसका उत्तर मुझे आज तक नहीं मिला, न ढूँढ़ पाने में क्षमाप्रार्थी हूँ। ईश्वर के समक्ष मैं कितनी गुनहगार हूँ या नहीं? यह वह ही जानता है। . . .

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अति विनम्रता
|

दशकों पुरानी बात है। उन दिनों हम सरोजिनी…

अनचाही बेटी
|

दो वर्ष पूरा होने में अभी तिरपन दिन अथवा…

अनोखा विवाह
|

नीरजा और महेश चंद्र द्विवेदी की सगाई की…

अनोखे और मज़ेदार संस्मरण
|

यदि हम आँख-कान खोल के रखें, तो पायेंगे कि…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

स्मृति लेख

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं