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लगता है!

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मेरी कोई कविता
अब मरेगी नहीं। 
कारण कई . . .सहमी-
सिसकती, सुलगती-
कविताओं को मैंने
बेहद रुलाया है। 
 
अनचाहा तड़पाया
तकिए के नीचे
जबरन सुलाया है ।
निज विवशताओं का
ताज पहनाया है। 
कुछ को दफ़नाया है। 
 
बेचारी मूक थी
तभी क़हर बरसाया है
बड़प्पन, वे भूली नहीं
बेक़ुसूर ठुकराया है। 
अब ममता जागी
तभी रहम आया है। 
 
आज गद्‌गद्‌ हैं
सिर चढ़ बोलती
शब्द ख़ुद टटोलती। 
क़लम की नोक से
मालाएँ पिरो रही
यौवन लौट आया है।

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