अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कर्म की माँ, मैं, ऊन का गोला और सलाइयाँ!! 

35 वर्ष पुरानी कहानी

 

समय बड़ा स्याना और बलवान है अपनी गति से चलता रहता है। बेटियाँ, बहन से बीवी बन कर के ससुराल चली जाती हैं यह केवल उनका ‘जन्मदाता’ ही जानता हैं। नए घर में आकर पहले बहू बन कर उसका सब ओर से ‘मुआयना’, ‘मीन मेख’ फिर शिकवे होने शुरू हो जाते है। बेटे में चाहे गिने चुने गुण हों लेकिन बहू ‘सर्वगुण’ सम्पन्न होनी चाहिए? 

कुछ ऐसे ही विवाह के बाद मेरे साथ हुआ। कर्म की माँ समझती थी मुझे सब कुछ आता होगा? एक दिन मुझे कहने लगे, “कविता इस नए स्वेटर के कंधे जोड़ दो।” बुनने वाली सलाइयाँ साथ ही थी। मेरे होश गुम। मैंने कभी सलाइयों को छुआ तक नहीं था। मेरे जेठानी की लड़की जो मेरे से आठ साल बड़ी थी मैं उसकी पीठ के पीछे बैठ असफल सा प्रयास करने लगी और परिणाम शून्य। दबी आवाज़ में मुझे यह सुनने को मिला माँ ने किताबों को पढ़ने के इलावा और कुछ नहीं सिखाया। उसी दिन यह सोच लिया था वक़्त लगेगा सब कुछ करके दिखाऊँगी। 

बात को संक्षेप में लिखते हुए कई वर्ष बीत जाने के बाद अपनी सूझ बूझ से और इधर उधर से पूछ कर, समझ कर छोटे बड़े सभी स्वैटर बुन डाले। कुछ तो नवजन्में बच्चों को उपहार में भी दिए। 

अब असली बात पर आती हूँ हमारी माँ बहुत बड़ी कलाकार थी। जो भी काम हाथ में लेना जी जान से जल्दी पूरा करने का प्रयास करना। इसके पीछे मुख्य कारण घर गृहस्थी के भार से वह लगभग मुक्त थी। उन दिनों पूज्य बीजी बड़े भाई साहिब के पास थी। पतिदेव सप्ताह में एकाध बार उनसे मिल आते थे। बेटे से अधिक उनकी माँ बेहद ममता लुटाती थी। एक दिन माँ ने प्यार व अधिकार से ऊन और सलाइयों का जोड़ा लिफ़ाफ़े में डाल कर थमा दिया यह कह कर कि अब कविता बहुत अच्छे स्वैटर बुन लेती है उसे कहना मेरा भी यह बना देगी। 

पतिदेव क्लिनिक से घर पहुँचे मेरे पूछने पर कि आज देर हो गई उन्होंने कहा माँ को मिल के आया हूँ। मैंने कहा बहुत अच्छा किया। फिर लिफ़ाफ़ा थमाते हुए कहने लगे माँ ने तुम्हारे लिए एक काम भेजा है। मेरी निगाह जब ऊन और सफ़ेद सलाइयों पर पड़ी चेहरे का रंग बदल गया। मैंने थोड़े ग़ुस्से में कहा, “आप मेरे लिए क्यों इतना बड़ा काम क्यों ले कर आए हो? आप को अच्छी तरह पता है बीजी ने १० दिन के बाद मुझे से नए स्वेटर की उम्मीद करनी शुरू कर देनी है जो नामुमकिन है।” 

न जाने ‘कौन’ सी विवशता की भावनाओं के बहाव में मैंने चंद कड़वे शब्द भी बोल दिए थे। पतिदेव का पारा बढ़ गया उन्होंने लिफ़ाफ़े को पूरे ज़ोर से ग्रिल के पार सड़क पर फेंक दिया। अब मेरी हालत और भी ख़स्ता। लिफ़ाफ़े को उठा कर लाऊँ? जिसका आदर करना मेरा कर्त्तव्य था। माँ को मेरे पर मान, अधिकार था तभी मुझे यह काम सौंपा। दूसरा पतिदेव का ग़ुस्सा जो काफ़ी हद तक जायज़ था झेल कर क्षमा माँगूँ? इसी दुविधा में मैं उस दिन रात भर सो नहीं सकी। लेकिन चुपके से जाकर ऊन और सलाइयाँ घर में ले आई। 

आज भी वह क्रीम रंग का बड़ा गोला, दो सलाइयाँ मेरे कड़वे शब्द मुझे भूले नहीं लेकिन और किसे याद होंगे? यह बीते पलों की पिटारी में बंद हैं। यक़ीन करें मैं अभी तक भी पश्चाताप के रंग में भीगी हुई हूँ। ईश्वर का आभार मेरी माँ तक मेरी दूषित भावनाएँ नहीं पहुँच पाईं। जितनी जल्दी सम्भव हो सका मैंने स्वेटर बुन कर आशीर्वाद लिया। आज जो भी है सब माँ की दुआओं का फल है। पाठक भी इस बात से सहमत होंगे कि बहुत बार प्रतिकूल परिस्थितियों में घिरे हम ऐसा कहने या करने में विवश हो जाते हैं? 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अति विनम्रता
|

दशकों पुरानी बात है। उन दिनों हम सरोजिनी…

अनचाही बेटी
|

दो वर्ष पूरा होने में अभी तिरपन दिन अथवा…

अनोखा विवाह
|

नीरजा और महेश चंद्र द्विवेदी की सगाई की…

अनोखे और मज़ेदार संस्मरण
|

यदि हम आँख-कान खोल के रखें, तो पायेंगे कि…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

स्मृति लेख

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं