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हादसा–04– निर्दोष कंजक की बद्दुआ

 

कन्या भ्रूण हत्या का अगला हादसा मेरे साथ सन्‌ 1979, जून मास के आस-पास हुआ। घर की बेटी की शादी थी पता चला लड़के के बड़े भाई, भाव कि बेटी के जेठ साहिब, उनकी एक बेटी है, अच्छा लगा। ईश्वर की कृपा, वर्ष बीतते ही, हमारी बेटी की गोद, फूल से बेटे से भर गई और भी ख़ुशी हुई। घर में फिर से बधाई की शहनाइयाँ गूँज उठी। बेटी ने बताया मेरी सास बहुत प्रसन्न है कि घर में अब पोती, पोता खेलेंगे कितना आनंद आएगा? वैसे भी सभी सोचते, बच्चे कितने बढ़िया खिलौने हैं जिनसे हर कोई खेलना चाहता है। उन्हें ऐसे लगता जैसे घर भर-सा गया हो। लेकिन जेठानी को एक ही बात का मलाल कि मेरे बेटी? देवरानी के बेटा कैसे? क्यों? उसकी बेटी अभी दो वर्ष की ही हुई थी तो ‘उनका प्रयास’ फिर से रंग लाया। देने वाले का कोटि-कोटि आभार, पर मन एक ही बात सोच कर बेहद विचलित व परेशान कि इस बार बेटी क़तई . . . नहीं चाहिए, चाहे कुछ भी करना पड़े, हल ढूँढ़ेंगे! कहीं भी जाना पड़े, जाएँगे! ख़र्चा कितना भी? दिल खोल कर करेंगे। दूसरी बेटी? प्रश्न ही . . . नहीं उठता।

तब भी लोगों की पहुँच बम्बई (मुंबई) ही थी। वैसे भी धनी लोगों के लिए तो आसमान मुट्ठी में है। विश्वास करें हमें बड़ी जल्दी पता चल गया था कि घूमने के बहाने दंपती ‘शुभ कार्य’ का दोशाला ओढ़, जेब में मुँह माँगी रक़म, देने के लिए मन बना कर घर से रवाना हो गए हैं। टैस्ट करवाने के बाद ‘मनचाही मुराद’ है तो ठीक अन्यथा ‘काम तमाम’ कर के ही घर लौटेंगे, जैसे कोई बड़ा तीर्थ करने जा रहे हों। दुर्भाग्य!! जब पता चला कि गर्भ में बेटी थी जिससे उन्होंने बिना कोई पश्चाताप छुटकारा पा लिया थाl दूसरी बड़ी बात, नामोशी की एक भी झलक दूर-दूर तक देखी, न सुनी थीl उन दिनों ऐसी घटनाएँ न मालूम कानों तक कैसे पहुँच जाती थीं जो वेदना के सिवाए कुछ भी प्रदान नहीं करती थीं। बड़ी बात बाद में पता चला था कि बेटे की चाहत तो ईश्वर ने पूरी की लेकिन उसने बड़े होकर क्या-कया गुल खिलाए, जो वे तो क्या, किसी से भी बताए न जाएँ। अनुमान लगाएँ कहीं उस अध्जन्मी, निर्दोष कंजक की बद्दुआ तो नहीं?

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