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हादसा–10– अंतिम निर्णय

 

कन्या भ्रूण हत्या के सजीव ‘हादसे’ आदरणीय सुमन घई जी लड़ीवार साहित्य कुञ्ज में छाप रहे हैं, मैं आभारी हूँ। जैसे-जैसे क़लम अपना दर्द काग़ज़ पर उलीक रही है, दबे, छिपे हादसे उभर कर आ रहे हैं। पाठकों की रुचि तथा मानव देह ने झेले ऐसे हृदय विदारक कष्ट बड़े . . . कष्टदायक हैं। 

अब जिस परिवार की चर्चा मैं करने जा रही हूँ मेरा चिर-परिचित नज़दीकी परिवार रहा है। कारण कोई भी समझें मेरे दिल के क़रीब है। प्रायः अपना दुःख सुख साझा कर ही लेते हैं। 1990 में दो बेटों की शादी दो दिन के अंतराल में कर दी। ख़ुशी इस बात की कि वैवाहिक रस्में सादी निभा कर दोनों की स्वागत पार्टी एक ही दिन कर दी। घर व समाज में हर तरह की जय-जयकार हो गई। लगभग 15 मास के अंदर दोनों ही बहुओं की गोद फूल-सी बेटियों से भर गईं। सुंदर-सुंदर नाम दिए गए। जो घर पहले बहुओं के आने से भरा-भरा लगता था अब पोतियों ने अपनी लुभावनी हरकतों से चार चाँद लगा दिए थे। 

लेकिन . . . दो तीन वर्ष बीतते ही अगली ख़बर वह भी बेटे की चाहत की दबी-दबी आवाज़ में आने लगी। बहुओं को हँसी-मज़ाक़ में ससुराल वालों का संदेश मिलने लगा। समझदार को इशारा काफ़ी, दोनों सोचने को विवश हो गईं। आपसी तालमेल अच्छा था तो कभी-कभार परस्पर बात भी करतीं पर हल क्या? पूजा, अर्चना को दिनचर्या में स्थान दिया ताकि ईश्वर की कृपा हो जाए तथा ‘तमन्ना का शृंगार’ हो जाए। डरते-डरते ममता की ‘पिटारी’ पुनः खुल गई। एक बार तो ईश्वर का धन्यवाद किया। घर में ख़ुशी की लहर भी देखी गई लेकिन ख़बर तब तक बाहर नहीं निकलने दी जब तक कि ‘टैस्ट’? यह एक पेचीदा सवाल था। घर में कुछ लोग हक़ में थे कुछ इसका विरोध कर रहे थे। नया मेहमान ‘चाहा, अनचाहा’ शृंगार कर रहा था। हैरानी! बड़ी बहू का मन धीरे-धीरे बना लिया गया। उसे यह कर समझाया गया कि तुम अकेली नहीं, तुम्हारे जैसी और बहुत हैं जो बड़ी जल्दी फ़ैसला ले लेती हैं। आजकल एक बेटी ही बोझ है, दूसरी आ गई तो तुम और सचिन आजीवन दब कर रह जाओगे। कहते हैं एक ही बात दुहराने, समझाने या आग्रह करने पर पत्थर दिल भी पिघल जाते हैं। वैसे भी उन दिनों यह ‘धंधा’ बेख़ौफ़ चल रहा था। आप विश्वास करें एक स्कैंनिंग सैंटर पर तो मैंने गाँव के औरतों की काफ़ी भीड़ अपनी आँखों से देखी है कारण उन दिनों ‘अच्छी’ कमाई का यह बढ़िया साधन था। 

बस फिर क्या बहू नेहा ने हथियार डाल दिए। ‘ज्ञान’ उसके अंदर समा गया, ममता को ग्रहण लग गया। बेचारी दुविधा से बाहर निकलना चाह रही थी तो उसने मिले-जुले फ़ैसले को अंतिम निर्णय की मुहर से अपनी मुट्ठी खोल दी। जिस नन्ही जान को ‘मुसीबत’ की संज्ञा मिली थी उस से नजात पाने के लिए डॉ. से समय लेकर हमेशा . . . के लिए छुटकारा मिल गया था। न मालूम क्यों, कभी-कभी फ़ुर्सत में बैठे मुझे लगता है जैसे वह मेरे कान में चुपके से कह रही हो “आँटी देखो मैं अब जवान हो गई हूँ, सुंदर लग रही हूँ न?” काश! ऐसा हो सकता? आह! . . . ना . . . मुमकिन! 
 

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