हुल के फूल
काव्य साहित्य | कविता चंद्र मोहन किस्कू1 Jan 2020 (अंक: 147, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
हुल के फूल
घिरी चारदिवारी के अंदर
खिलते नहीं हैं
वह तो
तुम्हारे और मेरे हृदय में भी खिल सकता है
जब तुम्हारी
आँखों के सामने
लोगों पर अत्याचार होता है
तुम्हारे पत्नी और बेटी को
उठा कर ले जाते हैं
कुछ बुरा सोचकर. . .
पहाड़ -पर्वत, नदी-नाला
और घर-द्वार से भी
तुम्हें बेदख़ल होना पड़े
तुम्हारी धन दौलत
लुट लेंगे
विचार और सोच पर भी
फ़ुल स्टोप लगायेंगे
तब
अपने आप
देह का ख़ून
गर्म हो जायेगा
नरम हथेली भी
कोठर मुट्ठी में बदल जायेगी
कंघी किए सर का बाल भी
खड़े हो जाएँगे
और मुँह से ज़ोर
आवाज़ निकल जायेगी ___
हुल, हुल, हुल
तब तुम्हारे चट्टानी हृदय में
हुल का फूल खिलेगा!
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