नारी
काव्य साहित्य | कविता जय प्रकाश साह ‘गुप्ता जी’15 Oct 2024 (अंक: 263, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
तुम ही अनुजा, तुम ही पुत्री,
तुम ही हमारी माता हो,
हर रिश्ते तुमसे बँधे हुए,
तुम ही जीवन दाता हो॥
तुम देवी हो, तुम दुर्गा हो,
तुम्ही सर्व शक्तिशाली हो
असुरों का नाश किया था जिसने,
तुम्ही वही महाकाली हो॥
कलयुग में हुआ क्या तुमको,
तुम अबला कैसे बन बैठी,
इन पुरुषों की मनमानी को,
इतनी आसानी से सह बैठी॥
आधुनिकता की इस चकाचौंध ने,
कैसे तुमको भरमा दिया,
शस्त्र छीन तेरे हाथों से,
दीया कैसे थमा दिया॥
तू जाग अभी नहीं देर हुई,
दिखा तुझसा कोई शेर नहीं,
इन गूँगे बहरों की नगरी में,
तुझसा कोई दिलेर नहीं॥
तुम ही दुर्गा अवतारी हो,
तुम ही सिंह सवारी हो,
महिषासुर रूपी दानव का,
तुम ही विध्वंसकारी हो॥
तुम सिंह चढ़ो, तलवार धरो,
रक्त-पात से तुम ना डरो,
चीर के सीना दुराचारी का,
अपनी रक्षा तुम स्वयं करो॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
गीत-नवगीत
किशोर साहित्य कविता
बाल साहित्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं