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ज़िन्दगी का फ़साना

 

माँ के आँचल में बचपन चहकता रहा, 
बाबा का लाड़ला बन चमकता रहा, 
दादा-दादी की आँखों का तारा बना 
घर के आँगन में दीपक-सा दमकता रहा॥
 
आई नौ जवानी निखर कर मुझे, 
देख सूरज भी मुझसे यूँ जलता रहा, 
मस्ती थी दिल में कुछ इस क़द्र, 
शोख़ पवन भी मुझसे यूँ बचता रहा, 
 
खुलके जी इस क़द्र हमने जवानी, 
दोस्तों के दिलों में बसता रहा, 
खेल कूद कर शौक़ पूरे किये, 
दिन जवानी की ख़ुशियों में कटता रहा॥
 
अब ना जवानी रही, ना रवानी रही, 
ना शौक़ रहे, ना मैं अब वो रहा, 
कश्मकश  में ऐसे हैं दिन जा रहे, 
ख़ुद को दो भागों में जा बाँटता मैं रहा॥
 
ज़िम्मेदारी बढ़ी, परिवार बढ़ा, 
दो फूलों (बेटियाँ) से आँगन महकता रहा, 
ज़िन्दगी का बस इतना फ़साना रहा, 
ख़ुद को खोता गया, सब को पाता रहा॥

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