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सिट-डाऊन से आगे . . . 

 

मैं छोटा था, स्कूल में पढ़ने वाला एक बच्चा। पीटी मास्टर हमें सुबह की एक्सरसाइज़ में सिट-डाऊन स्टैंड-अप करवाते, तो हमें बड़ा अच्छा लगता। हम क्लास में होते, कोई टीचर क्लास में आता तो हम सब बच्चे खड़े हो जाते। टीचर हमें सिट-डाऊन कहते, और हम बैठ जाते थे। जब हम कुछ बड़े हुए, तो रिकॉर्ड पर एक पंजाबी गीत सुनते थे, “नैण प्रीतो दे, बह जा बह जा करदे . . .” हम लड़के इस गीत को बड़ी मस्ती में ऐसे गाते थे, “नैण प्रीतो दे ‘सिट-डाऊन सिट-डाऊन’ करदे . . . “

जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ, मैंने विश्वविद्यालय में एक कैलिग्राफिस्ट के रूप में काम करना शुरू कर दिया। वहाँ अपनी माँगों को लेकर कर्मचारी पेन-डाऊन हड़ताल पर चले गए। इसका मतलब यह नहीं था कि क़लम नीचे रख दी। यह बैठने जैसा कुछ नहीं था। हम ऑफ़िस जाते थे, लेकिन कोई काम नहीं करते थे। यह पेन-डाऊन था। 

मैं सेवानिवृत हो गया। देश विकास के मुहाने पर था। लेकिन अचानक लॉक-डाऊन लग गया। ये नया शब्द सिट-डाऊन और पेन-डाऊन से अलग था। इसका मतलब यह नहीं है कि आपको लॉक (ताले) को नीचे रखना होता है। इसका मतलब घर पर रहना था। मैं पिछले एक साल से लॉक-डाऊन की स्थिति में हूँ। यह लॉक-डाऊन कभी-कभी ख़त्म भी हो जाता है। लेकिन ये शब्द अब सरकार के पास है। वह कभी भी लॉक-डाऊन लगा सकती है। 

यानी जैसे-जैसे मैंने अपने जीवन के चरण निर्धारित किए—बचपन, युवावस्था और फिर बुढ़ापा; किसी तरह मैंने ‘डाऊन’ को एक नए रूप में देखा। आज का बच्चा बचपन में लॉक-डाऊन देख रहा है। उन्हें सिट-डाऊन और पेन-डाऊन का पता ही नहीं है। आज का बच्चा पीछे से आगे की ओर बढ़ रहा है, यानी पहले लॉक-डाऊन, फिर पेन-डाऊन और अंत में सिट-डाऊन। उनके जीवन में पेन-डाऊन आए या न आए, सिट-डाऊन तो आ ही जाएगा। बुढ़ापे में जब एक भी क़दम नहीं चला जाएगा, तो स्वतः सिट-डाऊन हो जाएगा। पंजाबी के प्रसिद्ध सूफ़ी शायर बाबा फरीद के अनुसार:

फरीदा इनी निकी जंघिए थल डूगर भविओम। 
अज फरीदे कूजड़ा सै कोहां थी ओम। 

 (यानी, फरीद जी कहते हैं कि मैंने युवावस्था में अपनी छोटी-छोटी टाँगों से धरती और पहाड़ों का बेहिसाब सफ़र किया है, लेकिन अब मेरे बिल्कुल सामने पड़ा कूजा मुझ से बहुत दूर लग रहा है) 

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