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दुविधा 

 

श्रुति और आकाश अलग-अलग कॉलेजों में प्रोफ़ेसर थे। घर पहुँचने पर दोनों ने अपने-अपने हिसाब से सारे कामों को बाँटा हुआ था। अक्सर आकाश को सब्ज़ियाँ लाने और बाज़ार के कामों की ज़िम्मेदारी मिली हुई थी, जबकि श्रुति खाना बनाने और चाय-नाश्ता का ध्यान रखती थी। उन्होंने बरतन साफ़ करने और कपड़े धोने के लिए एक नौकरानी रखी थी। 

आकाश जब भी घर से सब्ज़ी ख़रीदने निकलता तो अक्सर दुकान पर जाकर अपनी पत्नी को फोन पर पूछता, “क्या लाऊँ?” 

आटा गूँथती हुई पत्नी खीझकर बोलती, “मैं क्या जानूँ? दुकान पर तो तुम खड़े हो। जो पसंद हो, जो अच्छा हो, ले आओ।” 

बेचारा आकाश, असहाय होकर, जो भी सब्ज़ियाँ मिल जातीं, ले आता और जब वह घर पहुँचता, तो अपनी पत्नी के ताना सुनता, “ओह, क्या ले आए हो तुम! कितनी बासी सब्ज़ियाँ हैं ये सब! मिर्चें और धनिया नहीं लाए क्या?” आकाश चुपचाप सब कुछ विवश होकर सुनता रहता। श्रुति की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था। 

एक दिन पति-पत्नी दोनों शहर से बाहर कहीं गये हुए थे। घर लौटने से पहले वे सब्ज़ी वग़ैरह ख़रीदने बाज़ार चले गए। आकाश कार में ही बैठा रहा, क्योंकि उसे कार पार्क करने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं मिल रहा था, और उसे यह भी डर था कि अगर वे दोनों कार से बाहर निकल गए, तो नगर निगम वाले कहीं कार को उठाकर ले ना जाएँ, क्योंकि कार सही जगह पर पार्क नहीं की गई थी। यह घटना उसके साथ पहले भी घटित हो चुकी थी। ख़ैर . . . सब्ज़ी वाले के पास जाकर श्रुति ने अपने पति को फोन किया और पूछा, “क्या लाऊँ, मुझे तो कुछ समझ नहीं आता।” 

अब आकाश के पास उसके तानों का साफ़ जवाब था, “मुझे क्या पता, सब्ज़ी वाले के पास तो तुम खड़ी हो! जो अच्छा लगे, ले आओ . . .”

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