अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

रौनक़

कुछ समय पहले एक परिवार दूर से आकर शहर की नवनिर्मित कॉलोनी में रहने लगा। घर में कुल तीन सदस्य थे—पति, पत्नी और बेटी। उन्होंने घर बना-बनाया ख़रीदा था। पैसे तो बहुत ख़र्च हुए थे, लेकिन खुला होने के कारण उन्हें यह बहुत पसंद था। 

कबूतरों का एक जोड़ा घर के एक झरोखे में घोंसला बनाकर मस्ती से रह रहा था, क्योंकि घर दो साल से ख़ाली पड़ा था। उन्होंने इधर-उधर गंदगी फैला रखी थी, तिनके इधर-उधर बिखरे पड़े थे। पति-पत्नी ने घर की सफ़ाई की, लेकिन घोंसला तोड़ने को लेकर दुविधा में थे। पति ने सीढ़ी लगाकर घोंसले में देखा, तो मादा कबूतर ने दो अंडे दे रखे थे। चूँकि सर्दियाँ क़रीब आ रही थीं, परिवार ने घोंसला तोड़ने का विचार त्याग दिया। कुछ दिनों के बाद अंडे फूटे और उनमें से दो नन्हे-मुन्ने बच्चे निकल आए। परिवार की बेटी यह देखकर बहुत ख़ुश हुई। इन छोटे बच्चों के लिए कबूतर-कबूतरी चोग़ा लेकर आते। माता-पिता की अनुपस्थिति में छोटे बच्चे डरते रहते थे। बच्चों की चहचहाहट से घर ख़ुशियों से भरा रहता। 

एक महीना बीतने के बाद बच्चों ने उड़ना सीख लिया और एक दिन पूरा कबूतर-परिवार कहीं और उड़ गया। बच्चों की चहचहाहट और कबूतरों के बार-बार मँडराने से घर में जो ख़ुशी पैदा होती थी, वह अब नहीं रही। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

पुस्तक समीक्षा

अनूदित कहानी

स्मृति लेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं