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एहसान-फ़रामोश 

 

“सर जी, बस तीस हज़ार का इंतज़ाम कर दो, मेरी माँ सख़्त बीमार है। वो अस्पताल में भर्ती है . . . अगले महीने सारे पैसे लौटा दूँगा।” 

करमजीत ने मिन्नतें करते हुए मेरे पैर पकड़ लिए। वह मेरे ही विभाग में मेरे अधीन काम कर रहा था। मैंने बॉस को भी उसे नियुक्त करने के लिए ज़ोर दिया था। मैं उसे रुपए नहीं देना चाहता था, क्योंकि उसने पहले भी किसी और बहाने से पंद्रह दिन के लिए बीस हज़ार रुपये मुझसे लिए थे और अब तीन साल बाद भी उसने वापस नहीं किए हैं। लेकिन मुझे उसकी माँ के बीमार होने पर दुःख हुआ। मैंने उसे तीस हज़ार का चेक दे दिया, क्योंकि मेरे पास उस समय नक़द रुपये नहीं थे। पाँच साल तक उसने रुपए लौटाने का नाम तक नहीं लिया। मैंने कई बार उससे इसके बारे में बात की, लेकिन वह मुझे टालता रहा। जब मेरी सेवानिवृत्ति का दिन आ गया तो मैंने करमजीत को पैसे वापस करने की याद दिलाई। “सर, कोई बात ही नहीं, मैं इसी सप्ताह आपको दे दूँगा।” 

जब मेरी बेटी का चंडीगढ़ में दाख़िला हुआ तो मुझे उसकी फ़ीस, पीजी आदि के लिए पैसों की सख़्त ज़रूरत थी। मैंने करमजीत से पूछा तो उसने साफ़ मना कर दिया, “कहाँ सर जी? मुझे तो पाँच महीने से तनख़्वाह ही नहीं मिली है . . . ” 

मुझे पता था कि वह बहानेबाज़ी कर रहा है और उसे लगातार तनख़्वाह मिल रही है। मैंने कार्यालय के उच्च अधिकारियों से संपर्क किया, लेकिन उस एहसान-फ़रामोश ने साढ़े छह साल के बाद भी पचास हज़ार रुपये में से एक भी रुपया तक वापस नहीं किया। उसने मुझे मेरी फ़राख़दिली और एहसानों का यह सिला दिया है।

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