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ज़िंदा हूँ जी रहा मेरी मंज़िल क़रीब है

वज़्न: 221    2121    1221    212
अरकान: माफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन 
 
ज़िंदा हूँ जी रहा मेरी मंज़िल क़रीब है। 
आ जाए कब बुलावा सफ़र ये अजीब है॥
 
ऐसी गुज़ारी उम्र की गुमनाम हो गए। 
अपना न कोई दोस्त न कोई रक़ीब है॥
 
नफ़रत उगल रहा है ज़बाँ से जो रात दिन। 
कैसे कहूँ उसे कि वो अच्छा नजीब है॥
 
लाशों का ढेर देख के आता नहीं तरस। 
होता है क़त्ल-ए-आम तो हँसता मुहीब है॥
 
कैसा फ़क़ीर है ये जो घूमे विमान से। 
क़िस्मत हो सबकी ऐसी कि फिर भी ग़रीब है॥
 
आवाज़ जो उठाते थे ख़ामोश हो गए। 
दरबारी बन गया जो वो अच्छा अदीब है॥
 
जिसको मैं ढूँढ़ता रहा दुनिया की भीड़ में। 
वो पास है न दूर ये कैसा नसीब है॥
 
जैसा करेगा जो वहाँ वैसा भरेगा वो। 
मैदान-ए-हश्र सबका ख़ुदा ही हसीब है॥
 
जन्नत निज़ाम उसकी है जो है रसूल का। 
मुझको ख़ुशी है ये मेरा साथी हबीब है॥

 

                                                   — निज़ाम फतेहपुरी 

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