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वो बचा रहा है गिरा के जो

ग़ज़ल- बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
अरकान- मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
वज़्न- 11212   11212   11212   11212
 
वो बचा रहा है गिरा के जो, वो अज़ीज़ है या रक़ीब है
न समझ सका उसे आज तक, कि वो कौन है जो अजीब है
 
मेरी ज़िंदगी का जो हाल है, वो कमाल मेरा अमाल है
जो किया उसी का सिला है सब, मैंने ख़ुद लिखा ये नसीब है
 
जिसे ढूँढ़ता रहा उम्र भर, रहा साथ-साथ दिखा न पर
मेरा साथ उसका अजीब है, न वो दूर है न क़रीब है
 
जहाँ दिल में प्यार भरा हुआ, वहीं जन्म शायरी का हुआ
जो क़लम से आग उगल रहा, वो नजीब है न अदीब है
 
भरी नफ़रतें जहाँ दिल में हों, वहाँ दिल सुकूँ कहाँ पाएगा
जो फ़िज़ा में ज़हर मिला रहा, वो मुहिब नहीं है मुहीब है
 
वो डरे ज़माने के ख़ौफ़ से, जिसे मौत पर है यक़ीं नहीं
मैं डरूँ किसी से जहाँ में क्यूँ, मेरे साथ मेरा हबीब है
 
यहाँ आया जो उसे जाना है, यही ला-फ़ना वो निज़ाम है
है करम ख़ुदा का उसी पे सब, जो अमीर है न ग़रीब है

—निज़ाम-फतेहपुरी

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